एक नए अध्ययन में पाया गया है कि पार्किंसंस के मरीजों के मस्तिष्क व त्वचा में बायोमार्कर फास्फोराइलेटेड अल्फा-सिन्यूक्लिन (पी-सिन) की न्यूरोनल उपस्थिति उन्हें सामान्य लोगों से अलग करती है। इससे पार्किंसंस की जल्द पहचान में मदद मिल सकती है। अध्ययन निष्कर्ष ‘जर्नल आफ पार्किंसंस डिजीज” में प्रकाशित हुआ है। इसकी लेखिका व इटली स्थित यूनिवर्सिटी आफ बोलोग्ना में बायोमेडिकल एंड न्यूरोमोटर साइंस की प्रोफेसर मारिया पिया जियाननोकारो के अनुसार, ‘पार्किंसंस डिजीज व अन्य न्यूरोडीजेनेरेटिव विकारों के संंबंध में अनुसंधान ने विभिन्न् बीमारियों के लिए जिम्मेदार पैथोलाजिकल प्रोटीन के संचय को रोकने में सक्षम इलाज का पता लगाया है। प्रो. रोक्को लिगुरी व डा. विंसेंजो डोनाडियो के नेतृत्व में हमारी प्रयोगश्ााला ने पिछला दश्ाक पार्किंसंस और उससे संबंधित बीमारियों के बायोमार्कर की खोज में बिताया है। हम चाहते थे कि पार्किंसंस डिजीज तथा उसकी जैसी बीमारियों प्रोग्रेसिव सुपरन्यूक्लियर पाल्सी (पीएसपी) तथा कार्टिकोबैसल सिंड्रोम (सीबीएस) में भेद कर सकें, ताकि इससे जरिये बीमारी की क्लीनिकल जांच में मदद मिल सके।” शोधकर्ताओं का कहना है कि अभी इस दिशा में और प्रयोग की जरूरत है, लेकिन प्रारंभिक निष्कर्ष बताते हैैं कि त्वचा की बायोप्सी (जीवित ऊतकों की जांच) के जरिये पार्किंसंस के मरीजों की पहचान की जा सकती है। पार्किंसंस एक ऐसी बीमारी है, जो पीड़ित के चलने-फिरने की क्षमता, मांसपेशियों पर नियंत्रण तथा संतुलन को प्रभावित करती है।