रायपुर। मेहनत इतनी खामोशी से करो कि सफलता खुद शोर मचा दे। यह पंक्तियां मानो 30 वर्षीय ममता चंद्रवंशी के लिए ही बनी है। मेहनत और लगन का ही नतीजा है कि आज उनके किए हुए हर सकारात्मक कार्य उसकी सफलता का प्रमाण बन चुके हैं। जन्म से ही दोनों पैरों से विकलांग ममता ने अपने हौसले और दृढ़ विश्वास के बल पर इतिहास रचा है। धूर नक्सल इलाके कोठीटोला गांव में रहने वाली ममता ने समाज सेवा का बीड़ा उठाया है।गांव गांव जा कर वह नशा मुक्ति के साथ ही किशोरी बेटियों को आत्मरक्षा के लिए प्रेरित कर रहे हैं। गरीबी और विकलांगता को उन्होंने अपनी कमजोरी नहीं बल्कि जीवन में आगे बढ़ने का आधार बना लिया। महिला दिवस के अवसर पर आइए जानते हैं ममता चंद्रवंशी की कहानी, जो खुद हाथों के सहारे चलती हैं लेकिन ग्रामीण अंचलों में घूम घूम कर सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग दे रहीं हैं। ममता के इस नेक कार्य के लिए उन्हें माता कौशल्या अवार्ड और मां बमलेश्वरी अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है।
बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली ममता बचपन से ही विकलांग हैं। सन 98 में पिता गुजर गए और 2003 में तालाब में डूबने से भाई की भी मौत हो गई। एक के बाद एक हुए हादसे से दुखों का पहाड़ टूट गया। ऐसे में मां को और खुद को संभाल पाना बड़ा ही मुश्किल हो गया। विकलांगता के कारण उसे कई विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। ग्रामीण इलाका होने के कारण ममता को पढ़ाई करने आश्रम में रहना पड़ा जहां बस से स्कूल जाना पड़ता। बस घर के 1 किलोमीटर पहले रुक जाती थी आगे का सफर उसे खुद ही तय करना पड़ता था। ऐसे में वह अपने हाथों का सहारा लेकर और घुटने के बल चल कर पढ़ने जाती थी। भाई की मौत के बाद उसे अपनी पढ़ाई को विराम देना पड़ा। आठवीं पास करने के बाद उसने पढ़ाई छोड़ मां के साथ रहने लगी।
अलख जगाया लोगों में
अपने पैरों पर खड़े होने के लिए ममता ने कुछ करने की ठानी और अपने साथ महिलाओं को इकट्ठा कर लोगों में जागरूकता लाने की मुहिम छेड़ दी। गांव की महिलाओं के साथ मिलकर नशा मुक्ति के लिए अभियान चलाए। लोगों को नशा मुक्त होने की सलाह देने लगी। गांव में घरों में होने वाले प्रसव को रोकने के लिए भी उन्होंने कई कार्य किए और लोगों को हॉस्पिटल में डिलीवरी कराने के लिए प्रेरित किया। फिलहाल ममता किशोरी बेटियों और महिलाओं को अपनी आत्मरक्षा करने के लिए कराटे की ट्रेनिंग दे रही हैं। उन्होंने एक एनजीओ भी बनाया है। इसके लिए उन्होंने कई ट्रेनर्स की मदद ली है। ममता बताती हैं कि वह कोठीटोला के साथ-साथ आसपास के 24 गांव में ट्रेनिंग दे रही हैं। ट्रेनर्स के जरिए एक गांव में 10 दिन का प्रशिक्षण देने के बाद प्रशिक्षण ले चुके किशोरियों को दूसरों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रेरित भी करती हैं। ऐसे चेन बनती जाती है और किशोरियों में आत्मविश्वास बढ़ता जाता है।
ट्राई साइकल चला कर जाती थीं 25 किलो मीटर दूर
ममता का मानना है कि आज के समय को देखते हुए हर महिला और युवती को आत्मनिर्भर होना चाहिए और खुद की सुरक्षा करना उसे आना चाहिए। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं और युवतियों में अभी उतनी जागरूकता नहीं है। वे अब भी डरती हैं। इसके लिए आवश्यक है कि वह खुद मजबूत हों। ममता बताती हैं कि पहले उनके पास किसी भी तरह का साधन नहीं होता था। उन्हें अपने गांव और आसपास की जगहों में पैर और घुटने के बल चल कर ही जाना पड़ता था। अपने सकारात्मक कार्य के कारण उन्हें 2008 में ट्राईसाइकल मिली जिसके बाद उन्होंने अपने गांव के साथ-साथ दूसरे गांव में भी जागरूकता लाने के लिए ट्रेनिग देने की शुरुआत की। ममता हर रोज अपने ट्रेनर्स के साथ 20 से 25 किलोमीटर ट्राईसाईकिल से सफर तय करती हैं और गांव में जाकर लोगों को जागरूक करने की कोशिश करती है। उनकी लगन और मेहनत को देखते हुए कई लोगों ने मदद की। आस पास की जगहों में आने-जाने के लिए बस वाले उनसे कभी भी टिकट नहीं लिया करते थे। आंगनबाड़ी में रहने वाली मैडम अक्सर उनकी मदद किया करती थी। इतना ही नहीं कुछ अनजान लोग भी आकर उन्हें आर्थिक मदद करने लगे जिससे उन्हें स्कूटर मिली। विकलांग होने के बाद भी ममता बड़े ही अच्छी तरह से स्कूटी चला लेती है और अब 60 किलोमीटर के दायरे में आने वाले गांव में जा जाकर किशोरियों को ट्रेनिंग दे रही हैं। ये ट्रेनिंग पूरी तरह निशुल्क होती है।
ममता कहती हैं कि उन्हें हमेशा यह लगता था कि उनके पैर नहीं है वह कभी अपने पैर पर खड़े नहीं हो पाएंगे लेकिन आज उन्हें यह महसूस होता है कि खुद के आत्मविश्वास और लोगों की मदद के कारण आज वह खुद के पैरों में पर खड़ी है और कई महिलाओं को रोजगार भी दे रही हैं।