“Ekhabri विशेष- बस्तर दशहरा” और लोक रस्मों की कड़ी(सीरीज 3), नारफोड़नी की रस्म व बिसाहा प्रथा की परंपरा


रायपुर,पूनम ऋतु सेन। कल के पोस्ट में हमने बस्तर दशहरा के पहले रस्म पाटजत्रा के बारे में जाना था, इसी कड़ी में आज हम अपने पाठकों के लिए नारफोड़नी की रस्म व बिसाहा पैसा के बारे में जानेंगे-

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में कुछ रस्में ऐसी है जिसकी जानकारी बेहद ही कम लोगों को है। लेकिन इन रस्मों का महत्व भी बाकी रस्मों की तरह ही है। ये रस्में बस्तर दशहरा की बुनियाद को मजबूत करने वाली रस्में है। नारफोड़नी और पिरती फारा रस्म का तो आप में से बहुत लोगों ने नाम भी नहीं सुना होगा।


क्या है नारफोड़नी रस्म ?

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में सिरासार चौक में विधि-विधानपूर्वक नारफोड़नी रस्म पूरी की जाती है । इसके तहत कारीगरों के प्रमुख की मौजूदगी में पूजा अर्चना किया जाता है। इस मौके पर मोगरी मछली, अंडा व लाई-चना अर्पित किया जाता है। साथ ही औजारों की पूजा की जाती है। । पूजा विधान के बाद रथ के एक्सल के लिए छेद किए जाने का काम शुरू किया जाता है। रथ के मध्य एक्सल के लिए किए जाने वाले छेद को नारफोड़नी रस्म कहा जाता है। चार पहियों वाला रथ सिरासार के सामने तैयार किया जाता है। इस कार्य में झारा और बेड़ा उमरगांव से पहुंचे करीब 150 कारीगर लगते हैं।


कैसे जुटाई जा रही है रथ निर्माण के लिए सामाग्री ?

600 वर्ष से भी अधिक समय पहले प्रारम्भ हुई बस्तर दशहरा अपने अनोखे अंदाज के लिए जाना जाता है।
आदिवासियों ने प्रारंभिक काल से ही बस्तर के राजाओं को हर प्रकार से सहयोग प्रदान किया, जिसका यह परिणाम निकला कि बस्तर दशहरा का विकास एक ऐसी परंपरा के रूप में हुआ जिस पर सिर्फ आदिवासी समुदाय ही नहीं आज समस्त छत्तीसगढ़वासी गर्व करते हैं ।

पूर्व में बस्तर राज्य में परगनिया माझी, माँझी मुकद्दम और कोटवार आदि ग्रामीण दशहरे की व्यवस्था में समय से पहले ही अपने कार्यों में जुट जाया करते थे । प्रतिवर्ष दशहरा पर्व के लिए परगनिया माझी अपने-अपने परगनों से सामग्री जुटाने का प्रयत्न करते थे। सामग्री जुटाने का काम दो तीन महीने पूर्व से होने लगता था।

बिसाहा पैसा की परंपरा व उसका परिवर्तित रूप

सामान जुटाने के लिए प्रत्येक तहसील का तहसीलदार सर्वप्रथम बिसाहा पैसा बाँट देता था, जिससे गाँव-गाँव से बकरे, सूअर, भैंसे, चावल, दाल, तेल, नमक, और मिर्च आदि बड़ी आसानी से जुटा लिए जाते थे।
सामग्री के औपचारिक मूल्य को बिसाहा पैसा कहते थे। एकत्रित सामग्री मंगनी चारडरदसराहा बोकड़ा कहलाती थी। सारी सहयोग सामग्री जगदलपुर स्थित कोठी के कोठिया को सौंप दी जाती थी।

भूतपूर्व बस्तर रियासत में टेम्पल व्यवस्था के तहत पूर्णत: सार्वजनिक दशहरा मनाया जाता था। समय बदला परिस्थितियाँ बदलीं, समाज बदला और इसके साथ ही मनुष्य का जीवन भी बदला। शासन ने जन भावनाओं का सम्मान करते हुए, इसमें अपनी रचनात्मक भूमिका निर्धारित की।

वर्तमान में बस्तर दशहरा के रस्मों को जीवंत बनाये रखने के लिए शासन के पदाधिकारी, सांसद व विधायकगण ग्राम वासियों व उनके मुखियाओं के साथ मिलकर इसकी रूपरेखा तैयार करते हैं, ग्राम पंचायतें भी बढ़ चढ़ कर संबंधित सम्मेलनों में हिस्सा लेते है व आदिवासी समाज श्रद्धापूर्वक श्रमदान करते हुए रस्मों की अदायगी करते हैं।


नारफोड़नी रस्म और बिसाहा प्रथा के बाद “Ekhabri विशेष बस्तर दशहरा” की अगली कड़ी में आगे अन्य प्रथाओं, रस्मों व किस्सों के बारे में विस्तार से जानेंगे, ऐसे ही छत्तीसगढ़ से जुड़े अन्य रोचक पहलुओं के बारे में जानने के लिए Ekhabri.com से जुड़े रहें।


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