
अमेरिकी हमले से तालिबान 2001 में पूरी तरह हार चुका था। वे तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करजई से संपर्क कर रहे थे और उनकी कोशिश थी कि समझौता हो जाए। हारे हुए तालिबानी उस समय माफी के अलावा कोई शर्त रखने की हालत में नहीं थे। उस समय अमेरिकी प्रशासन कतई समझौता करने को तैयार नहीं था। उसे भरोसा था कि वह तालिबान को खत्म कर देगा। इसी अति आत्मविश्वास की कीमत आज अफगानिस्तान चुका रहा है।
2001 में अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की राजनीतिक टीम का हिस्सा रहे बार्नेट रुबिन बताते हैं कि तालिबान के मामले में अमेरिका ने अहंकार में गलतियां कीं और आज अफगानिस्तान इसी की कीमत चुका रहा है। 20 साल पहले अमेरिका ने अहंकार में फैसले न लिए होते, तो शायद इतने लंबे समय तक युद्ध और आज की यह तबाही भी न होती। करीब दो दशक की लड़ाई के बाद फरवरी, 2020 में अंतत: डोनाल्ड ट्रंप की सरकार को तालिबान से समझौता करना पड़ा, लेकिन इस बार तस्वीर बदल चुकी थी। हवा का रुख तालिबान के पक्ष में था। कई शर्तों के साथ अमेरिका को समझौता करना पड़ा। राष्ट्रपति जो बाइडन की सरकार ने भी इस समझौते पर आगे बढ़ने का फैसला लिया।
अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो मिशन में वर्षों गुजारने वाले राजनयिक इस समझौते को धोखे की तरह देख रहे हैं। अगर अमेरिका ने पहले यही कदम उठाया होता, तो शायद इतना लंबा युद्ध न चलता। उस समय यदि तालिबान से समझौता किया गया होता, तो संभवत: इससे बुरा कुछ नहीं होता, जो अभी अफगानिस्तान में हो रहा है।










