एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘’शंकर’’, जी आगे चलकर ‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य’’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’
कुछ समय के पश्चात वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्र चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिन्ह परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य जी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। जिस समय जगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भरत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र ३२ वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई। शंकराचार्य जी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकर जी की माता के कंधों पर आ पड़ा। लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अत: इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे।
अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र २ वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृ शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई। कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ से हठ किया और बालक शंकर ने ७ वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।
आचार्य शंकर के जीवन का एक दिन–माताश्री आर्याम्बा के जीवन के अन्तिम क्षणों में उन्के पास पहुँचने के लिए आचार्य शंकर वाग्वद्ध हैं। ‘कालः क्रीड़ा गच्छत्यायुʼ सिद्धान्तानुसार यह क्षण उदित होता है। योगबल से आचार्य शंकर को इसका पूर्वाभास हो जाता है। चल देते हैं वे केरल के कालटी स्थित अपने ग्राम की ओर। ग्राम सीमा मे प्रवेश करते ही स्मृतियों की आंधी पूरी तरह उन्हें घेर लेती है। ‘अरे, यही तो अलवाई ( पूर्णा ) नदी है।इसी में स्नान करते समय मुझे मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। माताश्री से मेरे सन्यास की अनुज्ञा मिलनें पर ही उसने मुझे मुक्त किया था। कितनी विवशता थी अनुज्ञा देते समय उन्के मन में। मैं उनका एकमात्र संतान। वह भी सन्यासोन्मुख। वंश श्रृंखला के उच्छिन्न होने की स्थिति। एकाकिनी माता की सेवा- सुश्रुवा की समस्या। फिर भी उन्होंने मुझे सन्यास की अनुमति दी।’यही सब सोचते-सोचते पहुँच जाते हैं आचार्य अपने घर के दरवाजे पर। आचार्य की आहट पाकर गृहसेविका दरवाजा खोलती है। आचार्य सीधे पहुँचते हैं मातृशैया के पास। सन्यासी रूप में पुत्र को देखकर माता के नेत्रों से अश्रुविन्दु ढलकने लगते हैं। इसी क्रम मे माता का प्राणान्त हो जाता है। माताश्री के प्राण अपनें सन्यासी पुत्र की उत्कट प्रतीक्षा में ही अटके थे। इधर आँखे पुत्र का दर्शन करती हैं उधर दूसरे ही क्षण प्राण अपनी निष्कर्षण क्रिया से उनकी काया को शव का रूप दे देते हैं।
आचार्य शंकर ने सन्यास की दीक्षा ली है, वे परिव्राजक हो गये हैं। शास्त्रानुसार वे अग्नि स्पर्श नहीं कर सकते। उनके सामने एक भयंकर धर्मसंकट सुरसा की भांति मुँह बाये खड़ा हो जाता है। यदि वे माताश्री को मुखाग्नि देते हैं तो सन्यास धर्म से च्युत होते हैं। यदि मुखाग्नि नहीं देते तो पुत्र धर्म से विमुख होते है।कुछ समय के लिए आचार्य का सन्यासी चित्त उनके मन से कूदकर भाग जाता है। उसके स्थान पर सामान्य चित्त का प्रवेश हो जाता है। मातृ शव को देखकर वे एक सामान्य मानव की भांति विलखने लगते हैं। माताश्री के हाथों को अपने हाथ में लेकर अतीत में खो जाते हैं। सोचते हैं ‘इन्हीं हाथों से मेरी इतनी सेवा की थी। आज ये हाथ इतने परवश हो गये हैं। बचपन मे पूर्णा नदी में वे इन्हीं हाथों से मुझे मल -मल कर नहलाती थी। खिलाते समय साथी बच्चों के साथ मैं खेलने के लिए भाग जाता था। वे मुझे दौड़कर पकड़ लाती थीं और इन्हीं हाथों से खिलाती थीं। इन्हीं हाथों से वे प्रतिदिन मेंरे शरीर पर तैलमर्दन करती थीं। जब पिताश्री ( शिवगुरु ) का देहांत हो गया तो माताश्री मेरे मन सहारे अपना शेष जीवन बिताना चाहती थी। पर मेंरे सन्यासी होने के पश्चात वे पूरी तरह से टूट गयीं। मेरे अभाव में उनका मात्र एक ही कार्य रह गया था, मृत्यु की प्रतीक्षा।’आचार्य शंकर अतीत से वर्तमान में उतरते हैं। इसी समय गृहसेविका उनके कान में फुसफुसाती है,`माताश्री के अंत्येष्टि क्रिया में आपके नम्बूदरी परिवार के लोग भाग नहीं लेंगे। उनके असहयोग का कारण यह है कि वे आपके इस कृत्य को शास्त्र विरूद्ध और परम्परा विरूद्ध मानते हैं। कहते हैं ‘सन्यासी जब गृह त्याग कर देता है तो उसका गृह प्रपंच मे लौटना शास्त्र विरूद्ध है। अग्नि स्पर्श उसके लिये सर्वथा वर्जित है। हम लोग ऐसे शास्त्र विरूद्ध कार्य में आचार्य शंकर का साथ नहीं दे सकते। सेविका की बात सुनकर आचार्य एक क्षण के लिए उद्विग्न हो जाते हैं। उनकी समझ में नहीं आता है कि अकेले वे माता का शव लेकर श्मशान तक कैसे जायेंगे। कुछ समय के लिए वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। सहसा उनके मन में एक समाधान कौंधता है। ‘माताश्री के शव को श्मशान घाट पर न ले जाकर यदि गृह परिसर में ही अंत्येष्टि कर दी जाय तो इसमें क्या आपत्ति हो सकती है।ʼ ऐसा कुछ भाव आचार्य के मन में आता है। सगोत्री लोग दूर से ही आचार्य की द्विविधा का आनन्द ले रहे हैं। विपत्ति के इन क्षणों में कोई उनका साथ नहीं देता है। अन्ततः आचार्य शंकर अपने घर के सामने ही चिता सजाते हैं। किसी तरह माता के शव को चिता पर स्थापित करते हैं। हाथ में अग्निशिखा लेकर चिता की परिक्रमा करते हुए शव को मुखाग्नि देते हैं। आचार्य गृह परिसर को ही श्मशानघर मे परिवर्तित कर देते हैं। चिता से उठी लपटों को देखकर आचार्य को लगता है जैसे अग्नि देव उनकी माता के सूक्ष्म शरीर को लेकर पित्रलोक की ओर प्रयाण कर रहे हैं। क्रमशः चिता की लपटें शान्त हो जाती हैं पर आचार्य का मन अपने सगोत्रियो के लिए खिन्न हो जाता है। सोचते हैं, इतनी भारी विपत्तियों में हमारे सगोत्रियो ने सहानुभूति का एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला। आचार्य शंकर की इसी मानसिकता से एक शाप शब्द होता है,”अब इस गोत्र के लोग मेरी तरह शवदाह श्मशान घाट पर न करके अपने घर के सामने ही करेंगे।” ‘मृषा न होइ देव ऋषि वाणी’ सिद्धान्त के अनुसार केरल के कालटी ग्राम में नंबूदरी ब्राह्मणों मे आज भी शव-दाह घर के सामने ही किया जाता है।