कही-सुनी (13 FEB-22) : मंच के पीछे की कहानियाँ- राजनीति, प्रशासन और राजनीतिक दलों की

रवि भोई (लेखक, पत्रिका समवेत सृजन के प्रबंध संपादक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)


भाजपा की छीछालेदर
चर्चा है कि पूर्व मंत्री और भाजपा नेता राजेश मूणत की गिरफ्तारी एपिसोड में राज्य भाजपा की फजीहत हो गई। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह समेत भाजपा के तमाम बड़े नेताओं की आक्रामकता के बाद भी पुलिस ने वही किया, जो उसे करना था। आखिर में भाजपा को पुलिस के सामने समर्पण और थाने से अपना तंबू उखाड़ना ही पड़ा। इससे भाजपा की ही साख घटी। 15 साल सरकार में रहने के बाद भी पुलिस का कामकाज और तौर-तरीका भाजपा नेताओं को समझ न आने पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है। कहते हैं कुछ पुलिस वालों ने राजेश मूणत और भाजपा कार्यकर्ताओं पर लाठियां भांजी। कहते हैं मूणत समर्थक एक नेता ने भविष्यवाणी कर दी कि राज्य में अगली सरकार भाजपा की आएगी, तब उन्हें देखने की धमकी भी दे डाली। 2002 में राजेश मूणत के नेतृत्व जोगी सरकार के खिलाफ भाजयुमो का हल्लाबोल हुआ था, जिसमें तब के नेता प्रतिपक्ष नंदकुमार साय, स्व. लखीराम अग्रवाल समेत कई दिग्गज भाजपा नेता पुलिस के हाथों पीटे थे। 2003 में भाजपा की सरकार आई। डेढ़ दशक तक भाजपाइयों ने राज किया, लेकिन किसी पुलिस वाले का बाल-बांका नहीं हुआ। डंडे चलवाने वाले एक पुलिस अफसर तो कुछ समय बाद भाजपा सरकार के पिलर बन गए। पुलिस तो पुलिस है।


फेल हो गई पुलिस की रणनीति
कहते हैं कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को काले झंडे दिखाने में भाजपा का युवा ब्रिगेड कुछ ज्यादा ही तेवर दिखा गया। पुलिस ने भाजपा के युवा विंग से जुड़े कुछ लोगों को गिरफ्तार कर राहुल गांधी को काले झंडे दिखाने की कोशिश को नाकाम करने की रणनीति तो बनाई, पर भाजपा युवा ब्रिगेड के लोग पुलिस से तेज निकले। पुलिस की कोशिशों को धता बताते हुए वे राहुल गांधी को काले झंडे दिखा ही दिए। कहते हैं राहुल गांधी को काले झंडे दिखाने के लिए भाजपा युवा मोर्चा के प्रभारी अनुराग सिंहदेव और प्रदेश अध्यक्ष अमित साहू के नेतृत्व में सटीक रणनीति बनाई गई थी और संघ के एक नेता का उन्हें साथ मिला था। कहा जा रहा है कि भाजपा युवा मोर्चा की रणनीति का भान प्रदेश भाजपा के कई बड़े नेताओं को भी नहीं था।


राजनीतिक सुचिता तार-तार
कहते हैं पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी, फिर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को काले झंडे दिखाने के फेर में छत्तीसगढ़ की राजनीतिक सुचिता ही तार-तार हो गई। न भाजपा ने गरिमा रखी और न ही कांग्रेस ने। यहां तक मंत्री बंगले का भी मान नहीं रखा गया। लोग कह रहे हैं – “अतिथि देवो भवः” की जगह राज्य में यह कौन सी परंपरा पड़ गई? अब कांग्रेस के लोग पूर्व मंत्री राजेश मूणत पर एट्रोसिटी के तहत अपराध दर्ज कराने के अभियान में लगे हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में कहा जा रहा है राजेश मूणत पर नया खतरा तो मंडरा ही रहा है।


विरासत का हस्तांतरण?
आदित्येश्वर शरण सिंहदेव के सरगुजा जिला पंचायत उपाध्यक्ष निर्वाचन को लोग स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री पद के दावेदार टीएस सिंहदेव के राजनीतिक विरासत ट्रांसफर के तौर पर देख रहे हैं। टीएस सिंहदेव सरगुजा राजपरिवार से हैं। राजघराने में विरासत का हस्तांतरण परंपरा है। आदित्येश्वर मंत्री टीएस सिंहदेव के भतीजे हैं। वे अब तक राजनीति का ककहरा सीख रहे थे, अब उपाध्यक्ष के रूप में उनकी ताजपोशी हो गई। कहा जा रहा है कि आदित्येश्वर को तो पहले ही उपाध्यक्ष बनाया जा सकता था। राजनीतिक गणित के तहत ही पहले राकेश गुप्ता उपाध्यक्ष बने, फिर 10 महीने बाद इस्तीफा दे दिया। महीनों पद खाली रहने के बाद हुए चुनाव में आदित्येश्वर के खिलाफ भाजपा ने कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं किया। कांग्रेस के भीतर आवाज का तो सवाल नहीं था।


मंत्री पर भारी अफसर
कहते हैं संस्कृति विभाग के एक अफसर राज्य के एक आदिवासी मंत्री पर भारी पड़ गए। कहा जा रहा है कि मंत्री जी ने नाफरमानी पर अफसर को निलंबित किया था, लेकिन मंत्री जी का इंजेक्शन अफसर को ज्यादा दिन बेहोश नहीं रख पाया। खबर है कि अधिकारी महोदय हफ्तेभर में ही बहाल हो गए। न तो उन्हें कोई आरोपपत्र मिला और न ही उनसे कोई स्पष्टीकरण लिया गया। चर्चा है कि अफसर को निलंबित करने के लिए मंत्री जी को खूब पापड़ बेलने पड़े थे। मामला मंत्री जी के नाक का सवाल बन गया, तभी अफसर पर निलंबन की गाज गिरी, लेकिन अफसर इतने ताकतवर निकले कि चुटकी बजने से पहले ही पुरानी कुर्सी पर विराज गए।


मंत्री और कलेक्टर में अबोला
मंत्री और कलेक्टर दोनों ही सरकार के अंग हैं और जिले के विकास में दोनों की भूमिका अहम होती है, पर मंत्री और कलेक्टर में संवादहीनता की स्थिति हो, तो विकास का पहिया किस तरह घूम रहा होगा , इसका अंदाजा लगाया जा सकता है? छत्तीसगढ़ में ऐसा ही एक जिला है, जहां कलेक्टर से एक मंत्री बात ही नहीं करना चाहते हैं। मंत्री जी विभागीय सचिव के मार्फ़त काम करवाना चाहते हैं। कहते हैं मंत्री जी के काम के लिए कुछ सचिव तो कलेक्टर को बोल देते हैं, लेकिन कुछ कलेक्टर का काम कह कर कन्नी काट लेते हैं। कहा जा रहा है अबोला की स्थिति में गाड़ी चल रही है, पर ऐसा कब तक चलेगा, यह बड़ा सवाल है ?


माइंस प्रेमी के कंधे पर एसईसीएल
कहते हैं एसईसीएल के नए सीएमडी प्रेमसागर मिश्रा को माइंस से बड़ा प्यार है, उन्होंने एसईसीएल की कमान संभालते ही अलग-अलग माइंस में जाकर यह जता भी दिया है। चर्चा है कि एसईसीएल के पहले वाले साहब को माइंस से कहीं ज्यादा अपने गृह राज्य से मोहब्बत था, जिसके चलते नवरत्न कंपनी शीर्ष से धरातल पर आ गई। मुनाफे में कमी के साथ कोयले के लिए हाहाकार मच गया। एसईसीएल से अब भी पावर प्लांट को ही कोयला सप्लाई और दूसरों के लिए रोक पर हल्ला बोल चल रहा है। अब प्रेमसागर मिश्रा कोयले का उत्पादन बढ़ाने के साथ सप्लाई का मैनेजमेंट किस तरह सुधारते हैं, उस पर सबकी नजर है। खबर है कि सरकार ने एसईसीएल के पुराने दिन लौटाने के लिए ही प्रेमसागर मिश्रा को उनकी पुरानी जगह पर भेजा है।


टेंडर पास करने का नया ट्रेंड
यह जमाना सोशल मीडिया का है और लोग चिट्टी -पत्री की जगह मैसेज -व्हाट्सअप को ज्यादा तवज्जो देने लगे हैं। इसका असर सरकारी कामकाज पर भी दिखने लगा है। सरकारी सिस्टम नोटशीट के साथ-साथ अब मैसेज -व्हाट्सअप पर भी चलने लगा है। कहते हैं नए जमाने के कुछ अफसर व्हाट्सअप पर ही टेंडर भी मंजूर करने लगे हैं। चर्चा है कि नए-नए आईएएस बने अफसर कागज-पेन छोड़कर व्हाट्सअप फार्मूला पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं।


हांपने लगे बिजली बोर्ड के कर्मी
कहते हैं छत्तीसगढ़ राज्य बिजली बोर्ड का दफ्तर डंगनिया से नवा रायपुर शिफ्ट होने की खबर से वहां के कर्मचारी चिंतित हो उठे हैं। अजीत जोगी के शासनकाल में झटके के साथ छत्तीसगढ़ में अस्तित्व में आया छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल का दफ्तर पहले पुरानी बिल्डिंग में ही चला। भाजपा राज में डंगनिया में ही नया भवन बनाया गया ,जिसका नाम है “विद्युत सेवा भवन”। अब कांग्रेस राज में नवा रायपुर में नया भवन बनाने की खबर है। कहा जा रहा है कि “सेवा भवन” को ठिकाना समझ बैठे बोर्ड के कर्मियों को नवा रायपुर जाने और आने का भय अभी से सताने लगा है और चलने से पहले ही हांपने लगे हैं।


खैरागढ़ उपचुनाव का फैसला मार्च में
कहा जा रहा है कि खैरागढ़ विधानसभा के उपचुनाव के बारे में चुनाव आयोग मार्च में फैसला कर लेगा। माना जा रहा है कि पांच राज्यों के चुनाव निपटने के बाद चुनाव आयोग इस बारे में फैसला करेगा। विधानसभा सीट रिक्त होने के छह महीने के भीतर चुनाव करना होता है। खैरागढ़ के विधायक देवव्रत सिंह का निधन पिछले साल 4 नवंबर को हो गया था , इस लिहाज से अप्रैल आखिर तक चुनाव कराना होगा।

(डिस्क्लेमर – हमने लेखक के मूल लेख में कोई भी बदलाव नही किया है। प्रकाशित पोस्ट लेखक के मूल स्वरूप में है।)

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