Ekhabri धर्मदर्शन, पूनम ऋतु सेन। राजधानी रायपुर से सटे धमतरी जिले को विंध्यवासिनी नगरी के रूप में जाना जाता है। धमतरी अपनी पारम्परिक लोक संस्कृति व प्राकृतिक मनोरम सौंदर्य ले लिए विख्यात है। रुद्री और गंगरेल डैम जाने वाले पर्यटक विध्यवासिनी माँ का दर्शन करना नहीं भूलते।
आइये नवरात्र के 5वें दिन छत्तीसगढ़ के 5 प्रमुख शकितपीठों में से एक माँ विध्यवासिनी के बारे में जानते हैं-
वर्षों पुराने इस मंदिर को लेकर कई जन श्रुतिया प्रचलित है। पहली जनश्रुति के अनुसार के मुर्ति की उत्पत्ति या तो धमतरी के गोड नरेश धुरवा के काल की है या तो कांकेर नरेश के शासन काल में माडलिंक के समय की है।
धार्मिक प्रसंगों के जानकार और इतिहासकार ऐसा बताते हैं कि यह क्षेत्र पहले घनघोर जंगलोन के बीच बसा हुआ था। एक समय अपनी राजधानी कांकेर से सैनिकों के साथ इस स्थान में राजा नरहर देव शिकार खेलने आए। राजा के सैनिक आगे की ओर बढ़ रहे थे तभी एकाएक अचानक उनका दल-बल, सैनिक, हाथी-घोडे सभी उसी स्थल में रूक गए। काफी प्रयास के बाद भी जब वे आगे बढ़ने में विफल रहे तब वे सभी वापस चले गए। दूसरे दिन भी यह घटना हुई और सभी को लौटना पड़ा। इसके बाद राजा ने सेनापति को आदेश दिया कि इस स्थान पर ऐसा क्या है इस बात का पता करें। सैनिकों ने राजा के आदेश का पालन किया। खोजबीन करने पर उन्होंने पाया कि एक असाधारण पत्थर तेजमयी प्रकाश से चमचमा रहा है जिसके आसपास जंगली बिल्लियां बैठी हुई थी। राजा को इस बारे में सूचना दी गई तब राजा खुद वहाँ आए। वे इस असाधारण पत्थर को देखकर आकर्षित हो उठे और अपने सेनापति को आदेश दिया कि शीघ्र ही इसे यहां से हटाकर राजधानी कांकेर में इसे स्थापित करें। सैनिक राजा का आदेश पाकर खुदाई कार्य में जुट गए और इस प्रकिया में अचानक वहां से जल की अविरल जलधारा निकलना आरंभ हो गया तब खुदाई कार्य रोकना पड़ा। उसी रात्रि में राजा नरहर देव को देवी मां ने स्वप्न दिया जिसमें माता ने कहा कि’ राजन मुझे यहां से न ले जाए मैं यहाँ से कहीं नहीं जाउंगी, तुम्हारे सारे प्रयास विफल होंगे मेरी पूजा अर्चना इसी स्थान पर करें। यह जगत के लिए मंगलमय कल्याणकारी सुखमय शांति और मनोकामना पूर्ण रहेगी। मेरा आशीर्वाद सभी को मिलेगा’
इन बातों को सुनकर राजा ने यहाँ मूर्ति को स्थापित करवाया। और प्रतिमा के पास जंगली बिल्लियों का जमावड़ा होने के कारण माता का यह रूप बिलाई दाई के नाम से आँचलिक प्रसिद्धि मिली।
कालांतर में इसे मंदिर का स्वरुप प्रदान कर दरवाजा बनाया गया। प्रतिष्ठा के बाद देवी की मुर्ति स्वयं ऊपर उठने लगी और आज की स्थिति में आई।इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी देखने को मिलता है।पहले निर्मित द्वार से सीधे देवी के दर्शन होते थे। उस समय मूर्ति पूर्ण रुप से बाहर आई तो चेहरा द्वार के बिल्कुल सामने न होकर थोड़ा तिरछा रह गया।
पौराणिक मान्यता
दूसरी जनश्रुति के अनुसार अयोध्या के राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिये अपने कुल पुरोहित के आज्ञानुसार मंत्री सुमंत को सिंहावा पर्वत पर स्थित ऋषि आम ऋषियों को आमंत्रण देने भेजा। मुनि जब राजा के निमंत्रण पर अयोध्या के लिए आने लगे तो उसी समय वहां तपस्यारत विंध्याचल पर्वत राजा की पुत्री विंध्यवासिनी भी मुनियों के साथ आने लगी। मुनियों ने उन्हें अपने साथ आने की आज्ञा नहीं दी। इसके बाद भी विंध्यवासिनी चुपके-चुपके पीछे-पीछे आती रही। जब मुनियों की नजर फिर पड़ी तो उन्होंने देवी विंध्यवासिनी को वहीं पर रुक जाने कहा। साथ ही कहा कि आपका यहां रहना कल्याणकारी होगा। उसी समय विंध्यवासिनी काले पाषाण के रूप में परिवर्तित हो गईं तब से उनकी पूजा-अर्चना की जा रही है। अरसे बाद गोड़ नरेश धुरवा ने मंदिर का निर्माण कराया।
आंचलिक अनुभव
अंचल के लोगों का मानना है कि चन्द्रमा की अलग अलग कलाओं के साथ माता की आंखें प्रतिदिन घूमता रहता है, कभी सामने से दोनों आँखे स्पष्ट दिखाई देता है, कभी चेहरा घूमनें के कारण दाहिना आँख सामनें से स्पष्ट दिखाई नहीं देता है। पूर्णिमा से अमावस्या तक फ़िर अमावस्या से पूर्णिमा तक माँ का रूप चन्द्रमा की कला के साथ घूमता है। लोगों का कहना है कि प्रति सप्ताह लगातार तीन बार यदि गौर से देखेंगे तो माँ की अद्भुत लीला का अनुभव आपको भी होगा।