श्रीराम: शरणं मम
एक दिन पार्वतीजी जब स्नान कर रही थीं, उन्होंने अपने शरीर से एक बालक का निर्माण किया। वह बड़ा सुन्दर था, वह चैतन्य होकर पार्वतीजी के सामने खड़ा हो गया और बोला — माँ ! मेरे लिये क्या आज्ञा है ? पार्वतीजी ने कहा — तुम बाहर खड़े रहो, भीतर कोई न आने पावे। गणेश शस्त्र लेकर बाहर पहरे पर खड़े हो गये। संयोग ऐसा हुआ कि भगवान शंकर उसी समय वहाँ आ पहुँचे और बिना गणेशजी की ओर दृष्टि डाले भीतर घुसने लगे।
गणेशजी ने भगवान शंकर के सामने शस्त्र अड़ा दिया और कहा – कहाँ जा रहे हैं ? जानते नहीं, माँ की आज्ञा है कि भीतर मैं किसी को न आने दूँ ? भगवान शंकर ने मुस्कुराकर पूछा — माँ की आज्ञा का तो तुम पालन कर रहे हो, पर जानते हो – मैं कौन हूँ ? गणेशजी बोले — न तो जानता हूँ और न जानने की आवश्यकता है। मैं तो माँ की आज्ञा का पालन करूँगा, आपको भीतर नहीं घुसने दूँगा। भगवान शंकर ने समझाया, पर गणेशजी नहीं मानें।
ये गणेश कौन हैं ?
ये भी बुद्धि के देवता हैं। अब ब्रह्मा भी बुद्धि के देवता, दक्ष भी बुद्धिवादी और गणेश भी बुद्धि के देवता। तो, जब बुद्धि के देवता ने शंकरजी से कहा कि हम आपको भीतर घुसने नहीं देंगे तो उन्होंने गणेश का सिर काट लिया। जब वे भीतर घुसे तो पार्वतीजी ने पूछा — बाहर किसी ने आपको रोका नहीं ? शंकरजी बोले — हाँ ! एक सुन्दर-सा किशोर खड़ा हुआ रोक तो रहा था, पर मैंने उसका सिर काट लिया। सुनकर पार्वतीजी रोने लगीं कि आपने बेटे का सिर काट लिया।
अब सोचिये ! पार्वतीजी की आज्ञा कहाँ तक उचित थी ? मान लीजिये, आप अपने घर पर किसी पहरेदार को खड़ा कर देते हैं और उसे हिदायत दे देते हैं कि रात के समय कोई घुसने न पाये। अब वह पहरेदार चोर-डाकू को न घुसने दे तो उसके खड़े रहने की सार्थकता है। पर यदि रात के समय आप ही लौटकर आवें और वह पहरेदार आपसे कहे कि न, न, मुझे तो आज्ञा है कि रात के समय किसी को घुसने न दूँ। तो ऐसा पहरेदार रखने योग्य है या दंड के योग्य ?
यहाँ पर संकेत यह है कि बुद्धि के देवता गणेशजी पहरेदार हैं अर्थात् विवेक पहरेदार है।’ और विवेक का काम है – बुरे विचारों और दुर्गुणों को जीवन में पैठने न देना। इसीलिये उसे बाहर तैनात कर दिया गया है। इस प्रकार बाहर है विवेक और भीतर है श्रद्धामती पार्वती।
इसका अभिप्राय है कि श्रद्धा की सुरक्षा के लिये विवेक को सावधान रहना चाहिये कि दुर्गुण, दुर्विचार, अन्याय, काम, क्रोध, लोभ – यह सब भीतर न पैठने पायें। पर यदि विवेक, “विश्वास को ही भीतर न पैठने दे”, तब तो भई ! ऐसा विवेक काटने योग्य ही होगा। इसलिये शंकरजी ने सिर काट दिया। पार्वतीजी जब रोते हुये कहने लगीं कि यह आपने क्या किया ? तो शंकरजी ने भी शिकायत के स्वर में उनसे कहा कि आपने भी यह क्या किया ? पार्वती कुछ समझ न पायीं, बोलीं — आपका संकेत क्या है ? शंकरजी बोले – बेटे का निर्माण तो माता-पिता दोनों मिलकर करते हैं ; आपने अकेले बेटा कैसे बना लिया ?
इसका सांकेतिक तात्पर्य यह है कि मात्र श्रद्धा के द्वारा विवेक का निर्माण नहीं होगा, उसमें विश्वास का भी सहयोग चाहिये। इसीलिये शंकरजी बोले कि अब आप और हम दोनों मिलकर गणेश का निर्माण करेंगे। उसका शरीर आपका बनाया हुआ होगा, पर सिर मेरा बनाया हुआ, “उसे मैं नया सिर दूँगा।” और यही विवेक की व्याख्या है। ‘विवेक वह है – जिसका सिर विश्वास का है और शरीर श्रद्धा का।’ गणेशजी श्रद्धा और विश्वास की मिलनभूमि है। तो, हम उन गणेशजी की पूजा नहीं करते, जो पार्वतीजी के द्वारा बड़े सुन्दर बनाये गये थे, अपितु उनकी पूजा करते हैं, जिनका सिर काटकर शंकरजी ने हाथी का सिर लगा दिया।
इस प्रकार शिव के स्वरूप का निरूपण करते हुये हमने देखा कि –
- वे ऐसा विवेक नहीं चाहते, जिसमें अपनी कृति के प्रति आसक्ति हो,
- वे ऐसा भी विवेक वे नहीं चाहते, जो अहंकारी हो, और
- वे ऐसा भी नहीं, जो विश्वास का विरोधी हो।
‘विवेक के इन दोषों का निराकरण करना ही साक्षात् शिव का स्वरूप है।’