आईएनए का गठन
देश के सबसे दिलेर और अग्रणी सोच रखने वाले क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की थी। अपनी सिंगापुर यात्रा के दौरान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कैथेहाल गए थे जहां 21 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने आजाद हिंद सरकार का ऐलान किया था। यूं तो आजाद हिन्द फौज की स्थापना का मूल श्रेय रासबिहारी बोस को जाता है जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1942 में भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज या इन्डियन नेशनल आर्मी नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया गया। आज 21 अक्टूबर को आज़ाद हिंद फौज के गठन दिवस पर एक ऐसे किस्से के बारे में जानेंगे जिसने आईएनए जैसे मजबूत संगठन को झकझोर के रख दिया था।
भारत मुक्ति अभियान, जापान ने की सहायता
ये बात है सन 1945 की, जब भारत देश में अंग्रेज़ों से आज़ादी पाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर चल रहा था। सन 1944 में सुभाष चंद्र द्वारा चलाए गए भारत मुक्ति अभियान के तहत जापान की सहायता से इम्फाल पर कब्जा कर लिया गया था लेकिन असम में पंहुचा जाना बाकी था। प्रतिकूल परिस्थितियों में गठित और आयोजित यह सैनिक अभियान अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सका लेकिन लोगों के आंतरिक पहलुओं में राष्ट्र भक्ति की धारा को बढ़ाने में पुरजोर मदद की।
चलाया गया INA पर मुकदमा
इस अभियान का परिणाम यह रहा कि आईएनए के 20000 बन्दियों में से सैकड़ों पर सरकार ने नवम्बर, 1945 में दिल्ली के लाल किले में सार्वजनिक रूप से मुकदमा चलाने फैसला किया जिसमें आईएनए के 7000 सैनिकों को बिना मुकदमा चलाए बन्दी बनाया गया और उनको ब्रिटिश भारतीय सेना से बगावत करने के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया। इसी लाल किले में सुभाष चंद्र बोस ने स्वतन्त्र भारत का तिरंगा फहराने का स्वप्न देखा था।
आईएनए के तीन सैनिक अधिकारी, लाल किले पर हुए मुकदमे के बाद बरी किए गए शाह नवाज, जी. एस. ढिल्लों तथा प्रेम कुमार सहगल । उनके ऊपर ब्रिटिश सम्राट के प्रति षढयन्त्र रचने का आरोप लगाया गया। उनकी पैरवी भूलाभाई देसाई, सर तेजबहादुर सप्रू, आसफ अली और जवाहर लाल नेहरू ने की।
नेहरू ने की वकालत
जवाहर लाल नेहरू ने लगभग 29 साल बाद बैरिस्टर के रूप में अदालत में कदम रखा था। नवम्बर, 1945 में जब आईएनए के बन्दी अधिकारियों पर मुकदमा चलाया गया तो पूरे देश में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए। मुस्लिम लीग ने भी इस देश व्यापी आन्दोलन में भाग लिया 20 नवम्बर 1915 के इंटैलीजेन्स ब्यूरो की एक टिप्पणी में यह स्वीकार किया गया कि शायद ही कभी जनता ने किसी मुकदमे में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो और आरोपियों के प्रति इतनी अधिक सहानुभूति का प्रदर्शन किया हो इन आरोपियों का साथ देने वालों सभी धर्मों और सभी वर्गों के भारतीय शामिल थे।
जनता का मिला समर्थन
कांग्रेस के नेताओं ने जनता का रुख देखकर आईएनए के सैनिकों को मुक्त किए जाने के लिए किए जा रहे आन्दोलन में भाग लिया था क्योंकि वो जानते थे कि इस समय सुभाष या आईएनए की आलोचना को जनता किसी भी मूल्य पर सहन नहीं करेगी। इसी मुकदमें के विरोध में पूरा भारत एकजुट होता दिखाई दिया, जगह जगह उग्र प्रदर्शन हुए और रिहाई की मांग की जाने लगी।
लेकिन सहगल, खान तथा ढिल्लों को दोषी ठहराया गया। इन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। आईएनए में भाग लेने वालों को सेना से बर्खास्त कर दिया गया किन्तु सेनाध्यक्ष ऑचिनलेग ने सहगल, खान तथा ढिल्लों की सजा माफ कर दी क्योंकि उन्हें दण्डित करने में पूरे देश में आन्दोलन और सेना में विद्रोह फैलने का खतरा था।
सुभाष कहलाये जननायक
आजाद हिन्द फौज का यह अभियान भारतीयों के लिए आज़ादी पाने का सशक्त माध्यम बन चुका था। स्वयं
गांधीजी जो अहिंसा का पुजारी थे वे भी सुभाष के प्रशंसक बन गये। 1946 में उनके हिन्दी हरिजन पत्रिका में नेताजी को जन-नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। इससे स्पष्ट था कि बोस से विचारों में भिन्नता रखने वाले भी उनके अभियान की आलोचना करने का साहस नहीं कर रहे थे। इस प्रकार जन नायक ने अपने संगठन द्वारा भारत के आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।