- आक्रमण होने के अंदेशे में करते थे ब्लैकआउट
- सन 1962 के दौरान युद्ध का माहौल आया याद, अब देश है शक्तिशाली
अचानक से सयरन की गूंज और छाने लगता था सन्नाटा। चारों ओर अनिश्चितता और जान बचाने की चिंता। ये समय था 1962 का जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था। देश आजादी के बाद अपनी युवा अवस्था में कदम रखने वाला ही था कि उसके माथे पर युद्ध का एक बड़ा सा प्रशनचिन्ह लग गया। 73 साल बाद एक बार फिर आज वही स्थिति आन खड़ी हुई है पर हमारा देश अब अपरिपक्व नहीं बल्कि परिपक्व हो चुका है। अब वो मजबूती के साथ अपने हक की लड़ाई लड़ने में सक्षम है। ये बातें वे लोग भी महसूस कर रहे हैं, जिन्होंने सन 1962 के दौरान चीन और भारत युद्ध के दौरान खड़ी हुई विपरीत परिस्थितियों को देखा और उसका सामना किया था।
युद्ध के दौर के साक्षी बने इन लोगों की उम्र अब काफी हो चुकी है, लेकिन उस वक्त की तस्वीर आज भी इनकी आंखों में रील की तरह सामने आ जाती है।
अपनी उम्र के 69 बसंत पार कर चुके अनंत दीक्षित युद्ध के दौरान कक्षा 7 के छात्र थे। एनसीसी अनंतके छात्र होने के कारण देशभक्ती बचपन से ही उनमें थी। उस दौर की याद कर वे बताते हैं,लोगों में बहुत ज्यादा भय था क्योंकि आजादी के बाद भी हम युद्ध के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं थे। चीन ने सबसे पहले लद्दाख और अरूणाचल प्रदेश में हमला किया। सैनिकों के पास न तो अच्छे शस्त्र और औजार थे और न ही खुद को बचाव के लिए उपयोगी वस्तु। सैनिकों के पास बर्फ में पहने जाने वाले बूट तक नहीं थे और न ही ठंडी से बचने के लिए पर्याप्त साधन। ऐसी स्थिति में भी हमारे देश के जवान हिम्मत नहीं हारे और सामना किया।
लड़ाई शुरु हुई तब ही देशवासियों को सुरक्षित रहने के लिए बचाव के कई तरीके बताए जाते थे। चीन देश के अन्य हिस्सों में हवाई आक्रमण भी कर सकता था इससे बचने के लिए सभी को ब्लैक आउट की ट्रेनिंग दी जाती थी। थोड़ी भी भनक लगते ही सायरन बजा दिया जाता था, जिसे सुनकर लोग घर समेत आस-पास की सारी लाइट और रोशनी की सभी चीजें बंद कर देते थे। घर के बाहर की रोशनी खिड़कियों से बाहर न जाए इसके लिए खिड़कियों में काले रंग के कागज़ लगा दिए जाते थे। इसके लिए लोग और छात्र एक-दूसरे की मदद भी करत थे। हमने भी अपने घरों की खिड़कियों में काले कागज लगा रखे थे।
अपने कमाए पैसे दिए राजकिय कोश में
युद्ध के दौरान देश की आर्थिक स्थिति भी खराब होने लगी। राजकिय कोश में लोग सहायता करने के लिए आगे आए। 70 वर्षिय राजेश पटेल ने अपनी पॉकेट मनी के सारे पैसे राजकिय कोश में डाल दिए। इतना ही नहीं अपने दोस्तों के साथ चाय बेच और रेडियो रिपेयरिंग कर वे उससे मिलने वाला मेहनताना भी राजकिय कोश में डाल दिए।
नेहरू जी थे शांति दूत
युद्ध के वक्त पं. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। वे शांति दूत थे ये कहना है 80 वर्षिय प्रकाश चंद्र जैन का। नेहरू जी की सोच और कल्पना में युद्ध का कोई स्थान नहीं था, यही कारण है कि हमारा देश उस समय युद्ध के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं था। श्री जैन उस समय 18 बरस के थे। टेक्नॉलाजी उस समय अभी के सामान नहीं हुआ करती थी। हर खबर के लिए रेडियो और अखबार की राह देखना पड़ता था। इस युद्ध के बाद 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों में जागरुकता लाई और देश की रक्षा के लिए योजनाएं बनानी शुरु की।
77 वर्षिय एस आर माहाले की ने भी युद्ध के दौरान अनुभव बांटे वे उस समय 18 साल के थे। देश आजाद लगभग 14 साल ही बीते थे। वे कहते हैं चीन का अक्रमण करना अप्रत्याशित था। भारत को हमले की कोई आशंका नहीं थी। सेना का यह सकारात्मक पक्ष था जो 32 दिनों तक चीन को जवाब देते रहे। युद्ध के बाद विदेशों से आने वाले समान के निर्यात में दिक्कत आने लगी थी। धीरे-धीरे समय निकला और परिस्थतियां बदलती गईं।