ज्ञानवापी मंदिर है। इसके प्रमाण देश-विदेश के संग्रहालयों में मिलते हैं। ब्रिटिश लाइब्रेरी में जिन दुर्लभ साक्ष्यों का संग्रह है, वे यहां गुरुग्राम के अमेरिकन इंस्टीटयूट आफ इंडियन स्टडीज के आर्ट एंड आर्कियोलाजी (कला और पुरातत्व) विभाग में देखे जा सकते हैं। इसमें रखी कुछ तस्वीरें ज्ञानवापी के मंदिर होने की बात प्रमाणित करती हैं। यह संस्थान विभिन्न दौर के मंदिरों के वास्तुशिल्प पर शोध और संग्रह के आधार पर इनसाइक्लोपीडिया (ज्ञानकोश) बनाता है। यहां ब्रिटिश पुरातत्ववेक्ता जेम्स प्रिसेप द्वारा 1830 में ली गई कुछ तस्वीरें हैं, जिन्हें यहां की लाइब्रेरी में ‘बनारस इलस्ट्रेटेड” स्तंभ के तहत रखा गया है। यहां के पुस्तकालय में रखी एक पुस्तक में इन चित्रों का परिचय-वर्णन भी मिलता है।
संस्थान की पदाधिकारी वंदना सिन्हा ने बताया कि इस लाइब्रेरी में यह संकलन 1960 में लाया गया था। इसमें जेम्स प्रिसेप द्वारा ली गई ज्ञानवापी की फोटो का चित्रांकन पुराने काशी विश्वनाथ मंदिर के नाम से किया गया है। यद्यपि संस्थान में रखे इन चित्रों में अधिकतर वास्तुशिल्प से संबंधित हैं, लेकिन इसके विभिन्न् हिस्सों को उस समय भी मंदिर के तौर पर ही लिखा गया है। एक फोटो में मंदिर के दक्षिण पश्चिम कोने को इंगित किया गया है, जिसे मंदिर का गर्भगृह बताते हुए लिखा है कि बलुआ पत्थरों से बनी यह संरचना 1585 ईस्वी की है।
कुबेर नाथ सुकुल ने 1974 की पुस्तक ‘वाराणसी डाउन द एजेज” में जेम्स प्रिसेप के इसी चित्र संग्रह का हवाला देते हुए लिखा है कि जेम्स प्रिसेप की नजर से देखें तो विश्वेश्वर मंदिर राजा टोडरमल ने 1585 में बनवाया था। इसे औरंगजेब द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। जेम्स प्रिसेप की फोटो में मंदिर का पश्चिमी द्वार दिखता है। पुस्तक में इस चित्र का कैप्शन दिया गया है कि यह मंदिर का पश्चिमी द्वार ध्वस्त होने के बाद भी इस अवस्था में था और फोटो में इसकी स्थिति बताती है कि यह मंदिर था। अगर मंदिर के वास्तुशिल्प की बात करें तो प्रिसेप के फोटो प्रमाणित करते हैं कि यह उस दौर का है, जबकि बलुआ पत्थरों से मंदिरों की एक विशेष तरह की संरचना बनाई जाती थी। अब 1669 में औरंगजेब ने इसे तोड़ने के आदेश दिए, जिसमें मंदिर के कुछ हिस्से को पूरी तरह नष्ट न करके उसे खंडित करके वैसे ही छोड़ दिया गया। पुस्तक में लिखा है कि इस हिस्से में पूजा-अर्चना के लिए हिंदू आते थे, लेकिन छिपते-छिपाते। यह क्रम इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होलकर द्वारा 1777 में यहां मंदिर बनाने तक चलता रहा। उसके बाद लोग पूजन के लिए सार्वजनिक रूप से पहुंचने लगे।
इसी पुस्तक में पारसी साहित्य के एक एक दिलचस्प किस्से का जिक्र भी है कि शाहजहां के दरबार में एक हिंदू कवि थे, जिन्होंने दावा किया था कि वह ब्राह्मण थे और हमेशा ब्राह्मण रहेंगे। चाहे उन्हें कितनी ही बार काबा क्यों न ले जाया जाय। यही वजह है कि उनका असल नाम चंद्रभान होते हुए उन्हें दरबारियों ने ‘बाराहमन” कहना शुरू कर दिया। चंद्रभान औरंगजेब के शासनकाल में भी रहे और जब ज्ञानवापी मस्जिद बनी तो उनसे कहा गया कि इस अवसर पर क्या कहना चाहेंगे। ऐसे में उन्होंने एक दोहा कहा जिसका भावार्थ था कि भगवान ने ही स्थान दिया और उन्हीं के स्थल को तोड़कर यह मस्जिद बनाई जा सकी।