छत्तीसगढ़ का बस्तर हमेशा से ही अपनी कला, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्यता को लेकर पूरे देश में जाना जाता है। बस्तर का दशहरा हो या फिर बस्तर में मनाए जाने वाला गोंचा पर्व रथयात्रा। इन महापर्वो में बस्तर में अदा की जाने वाली सभी रस्म को देखने लोग दूर-दूर से बस्तर पहुचते हैं। खूबसूरत वादियों के बीच आदिवासी समाज की संस्कृति और सभ्यता का गवाह बनते हैं। बस्तर के दशहरा पर्व के बाद गोंचा पर्व को दूसरे बड़े पर्व का दर्जा दिया गया है। करीब 600 सालों से चली आ रही परंपराओं के मुताबिक इस पर्व को 27 दिनों तक मनाया जाता है। यहां जगन्नाथ पुरी की तर्ज पर भगवान जगन्नाथ, माता सुभद्रा और बलभद्र के तीन विशालकाय रथ निकाले जाते हैं। शहर में इसकी परिक्रमा कराई जाती है। इसे देखने हजारों की संख्या में लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है।
जगदलपुर में जगन्नाथ मंदिर में रस्म के दौरान तुपकी (बांस की बनी नली) की सलामी के बाद ही रथयात्रा की शुरुआत की गई। तीन विशालकाय रथों में सवार भगवान जगन्नाथ, माता सुभद्रा और बलभद्र के रथ के दर्शन करने के लिए भारी संख्या में लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी।
करीब 600 साल पहले बस्तर के राजा महाराज पुरषोत्तम पैदल यात्रा करते हुए बस्तर से ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने पहुंचे थे। पुरी के राजा गजपति ने उन्हें जगन्नाथ मंदिर में मौजूद माता सुभद्रा का रथ दिया था। इसके बाद से ही बस्तर में जगन्नाथ रथयात्रा को बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा।
परंपराओं के अनुसार गोंचा पर्व के पहले दिन ही भगवान जगन्नाथ, माता सुभद्रा को अपने साथ गुंडेचा मंदिर लेकर जाते हैं। यहां दोनों 7 दिनों तक आराम करते हैं। इस दौरान बस्तर राजपरिवार भी भगवान जगन्नाथ की पूरे विधि-विधान से पूजा पाठ करता है। रथ यात्रा के दिन राजपरिवार के द्वारा विशेष पूजा अर्चना की जाती है। बस्तर के आरण्यक ब्राह्मण समाज के लोगों के द्वारा अब अगले 9 दिनों तक जगदलपुर शहर के सीरासार भवन में विधि विधान के साथ भगवान जगन्नाथ के 12 विग्रहों की पूजा की जाती है। इसे देखने केवल बस्तर से ही नहीं, बल्कि पड़ोसी राज्य तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और देश के कोने कोने से भी लोग बस्तर पहुंचते हैं।