रायपुर। (Ekhabri विशेष)पूनम ऋतु सेन।शेष भारत में मनाए जाने वाले दशहरा से बस्तर में मनाए जाने वाला दशहरा भिन्न है। दंतेश्वरी देवी को समर्पित यह पर्व 75 दिनों तक चलने वाला विश्व का सबसे लंबा पर्व है, इसके अंतर्गत 13 मुख्य रस्म हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
कल के पोस्ट में हमने रथ देवी रथ के परिक्रमा के बारे में बात की थी, लोक रस्मों की इसी कड़ी में हम आज जोगी उठाई और मावली परघाव प्रथा के बारे में जानेंगे।
जोगी उठाई
अश्विन शुक्ल 9 को संध्या समय लगभग 5 बजे जगदलपुर स्थित सिरासार में बिठाए गए जोगी को समारोहपूर्वक उठाया जाता है। यह वही जोगी बिठाई रस्म के हल्बा समुदाय का व्यक्ति है जो 9 दिनों तक निर्विघ्न बस्तर दशहरा संपन्न होने की कामना से साधक बन एक गड्ढे में बैठ व्रत करता है। 9 दिन पूरा होने पर जोगी को साधना से उठने के बाद उसे भेंट देकर सम्मानित किया जाता है। इसी दिन लगभग 9 बजे रात्रि में मावली परघाव का रस्म होता है।
मावली परघाव
मावली परघाव रस्म का अर्थ है – मावली देवी की डोली का श्रद्धा पूर्वक स्वागत करना या मावली देवी की स्थापना करना। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। मावली माता को पालकी में बिठाकर दंतेवाड़ा से जगदलपुर लाया जाता है। चार माड़िया जाति के व्यक्तियों द्वारा कंधे से उठाकर लाया जाता है। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है, जिसे पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है और यही मावली माता कहलाती हैं। मावली माता की डोली को सम्मानपूर्वक आतिथ्य दिया जाता है तथा लोक देवी दंतेश्वरी की छत्र-छाया में आदर प्राप्त करने हेतु बस्तर दशहरा के आमंत्रण में पधारे विविध ग्रामों के देवी देवता मावली परघाव में सम्मिलित होते हैं।
बस्तर दशहरा का सर्वाधिक गुंजायमान समारोह का वातावरण इसी समय निर्मित होता है।मावली माता निमंत्रण पाकर दशहरा पर्व में सम्मिलित होने जगदलपुर पहुँचती हैं। पहले इनकी डोली को राजा कुँवर राजगुरु और पुजारी कंधे देकर दंतेश्वरी मंदिर तक पहुँचाते थे। आज भी पुजारी राजगुरु और राजपरिवार के लोग श्रद्धा सहित डोली को उठा लाते हैं।
मावली परघाव के लिए जिया डेरी रस्म ..
बस्तर दशहरा में “जिया” का मतलब होता है पुजारी और डेरा का मतलब होता है “रुकने का स्थान” दंतेवाडा से माईजी की पालकी को जगदलपुर लाया जाने पर सर्वप्रथम जिया डेरा स्थित गुडी में ससम्मान रुकाया जाता है तथा उनकी पालकी और उनके पुजारियों को मावली परघाव रस्म प्रारम्भ होने से पूर्व विश्राम दिया जाता है उक्त पूर्ण रस्म को जिया डेरी रस्म कहते है ।
पुरातन काल मे माईं जी की डोली हाथी घोड़े और राजदरबारों के साथ लगभग 4-5 दिन में पहुँचती थी लेकिन आधुनिक समय मे मोटर गाड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है ।
वस्तुतः बस्तर के आदिम संस्कृति के संवाहक विविध ग्रामों के देव-धामी अपने ग्रामवासियों के अपने-अपने छत्र, चंवर, डोले-डोलियों एवं बैरकों के साथ ढोल व नगाड़ा, तोड़ी, मोहरी, घण्टे, शंख एवं मुण्डा बाजा का गगनचुम्बी वादन का शंखनाद करते हुए रथ के साथ जब नगर की परिक्रमा करते हैं तो ऐसा लगता है कि लोक संस्कृति की अप्रतिम धारा अपने सम्पूर्णता के साथ गतिशील हो रही है।
इस सीरीज के माध्यम से हम अपने पाठकों को बस्तर दशहरा के क्रमवार रस्मों को आप तक विस्तार से पहुँचा रहे हैं, आगामी सीरीज में हम पुनः नए रस्मों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। ऐसे ही अन्य तथ्यों से अवगत होते रहने के लिए Ekhabri.com से जुड़े रहें।