Ekhabri धर्मदर्शन,पूनम ऋतु सेन। एक और जहां पूरा विश्व, दशहरे के अवसर पर रावण का अंत और भगवान राम के अयोध्या वापसी से संबंधित पर्व मनाता है वहीं बस्तर दशहरा अपनी अनोखी मान्यताओं के कारण विश्व प्रसिद्ध हो चुका है। यहां मां दुर्गा द्वारा महिषासुर के वध के उत्सव पर दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी माता के लिए समर्पित, बस्तर दशहरा मनाया जाता है। 75 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में आदिवासी अंचल के सामाजिक समरसता की बुनियादी और मजबूत व्यवस्था को देखा जा सकता है।
“Ekhabri विशेष बस्तर दशहरा” के इस सीरीज में हमने कल जोगी बिठाई जैसी परंपरा के बारे में बात की थी। इसी कड़ी में अगला पड़ाव रथ परिक्रमा का है चलिए आज इस पोस्ट में इसी प्रथा के बारे में जानते हैं-
रथ परिक्रमा
जोगी बिठाई के दूसरे दिन से ही रथ परिक्रमा शुरू हो जाती है जो लगातार 6 दिनों तक चलती है। इसका प्रारम्भ अश्विन शुक्ल द्वितीया से हो जाता है जो लगातार 5 दिनों तक अश्विन शुक्ल सप्तमी तक चलता है। इन दिनों रथ परिक्रमा करायी जाती है। चार पहिए वाला यह रथ पुष्प सज्जा प्रधान होने के कारण फूलरथ कहलाता है।
क्या होता है इस रस्म में
फूलरथ पर आरुढ़ होने वाले राजा के सिर पर फूलों की पगड़ी बँधी होती थी परंतु वर्तमान में लोकतंत्र के बदले स्वरूप के बाद राजा रथ पर अब केवल देवी दंतेश्वरी का छत्र ही आरुढ़ रहता है जिसके साथ में अब केवल देवी का पुजारी रहता है। रथ प्रतिदिन शाम को एक निश्चित मार्ग का परिक्रमा करता है और राजमहल के सिंहद्वार के सामने खड़ा हो जाता है।
पहले 12 पहियों वाला एक विशाल रथ किसी तरह चलाया जाता था परंतु चलाने में असुविधा होने के कारण एक रथ को आठ और चार पहियों वाले दो रथों में विभाजित कर दिया गया। क्योंकि जनश्रुति है कि राजा पुरुषोत्तम देव को जगन्नाथ जी ने बारह पहियों वाले रथ का वरदान दिया था।
दशहरे की भीड़ में गाँव-गाँव से आमंत्रित देवी-देवताओं के साज-बाज आज भी देखने को मिल जाते हैं। उनके छत्र डंगइयाँ घंटे, बैरक घंटे, शंख तोड़ियाँ आदि सब अपनी अपनी जगह ठीक ठाक हैं, आज भी लोग श्रद्धा भक्ति से प्रेरित होकर रथों की रस्सियाँ खींचते हैं। रथ के साथ-साथ नाच गाने भी चलते रहते हैं। मुंडा लोगों के मुंडा बाजे बज रहे होते हैं। उनका ‘मार’ (लोक-नृत्य) धमाधम चल रहा होता है। नाइक, पाइक, माझी एवं कोटवार आदि तो आज भी चलते है, पर पहले सैदार, बैदार, पड़ियार और राजभवन के नौकर चाकर भी अपने अपने राजसी पहनावे में चलते थे।
पहले रथ प्रतिदिन सीरासार चौक से ठीक समय पर चलकर शाम को एक निश्चित समय पर सिंहद्वार के सामने पहुँच जाता है। इस रथयात्रा के दौरान हल्बा सैनिकों का वर्चस्व रहता था। अश्विन शुक्ल 7 को चार पहियों वाले रथ की समापन परिक्रमा चलती है। तत्पश्चात दूसरे दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है। दुर्गाष्टमी के अंतर्गत निशा जात्रा का कार्यक्रम होता है। निशा जात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है।
बस्तर दशहरा और लोक रस्मो की इस कड़ी में आगामी रस्मों के बारे में पुनः विस्तार से जानेंगे, ऐसे ही छत्तीसगढ़ के अन्य रोचक तथ्यों के बारे में जानने के लिए Ekhabri.com से जुड़े रहे।