दिव्य प्रेम सबकुछ स्वीकार करता है । यदि आप खेलना चाहते हैं तो आप खेल सकते हैं । यदि आप मिट्टी में कोलाहल करते हुए खेलना चाहते हैं और गंदे हो जाना चाहते हैं, तो इसमें कोई परेशानी नहीं है । बहुत अच्छे साबनु उपलब्ध हैं जिनसे आप अपने आप को साफ कर सकते हैं और घर वापस जा सकते हैं ।
इसमें न तो कोई निर्णय लिया जाता है और न ही दंड दिया जाता है । ईश्वर को हम एक न्यायाधीश समझते हैं जो निर्णय देते हैं । हम ऐसा सोचते हैं कि हमारे अच्छे कार्यों के लिए वे हमें पुरस्कार देंगे और बुरे कार्यों के लिए हमें दंड देंगे । लेकिन इसमें प्रेम नहीं है । कोई भी न्यायाधीश यह कर सकता है । हम सोचते हैं कि ईश्वर एक व्यक्ति हैं जो अपने कर्तव्यों से बँधे हुए हैं । जब ईश्वर हमारे कार्यों के आधार पर हमें फल देते हैं तब हमें उनकी पूजा क्यों करनी चाहिए ? आपके अच्छे कार्य आपको अच्छे फल देंगे एवं आपके बुरे कार्य आपको परेशानियाँ देंगे । तो आपको अपने अच्छे एवं बुरे कार्यों को देखने की आवश्यकता है । ईश्वर की चिंता आप न करें ।
लेकिन ऐसा नहीं है । यहाँ न तो तो कोई निर्णय लेता है और न ही दंड दिया जाता है । ईश्वरीय प्रेम एक खेल की तरह है । प्रेम केवल खेलना जानता है, निर्णय करना नहीं । आपको सदैव यह याद रखना चाहिए कि यह सब एक खेल है । यह ऐसा लगता नहीं है लेकिन फिर भी यह एक खेल ही है ।यदि यह आपको समझ में नहीं आता है तो कोई बात नहीं है ।
भक्ति आपका स्वभाव है । जब आप अपने स्वभाव में विश्राम कर रहे होते हैं तो कोई विवाद नहीं होता है । लेकिन सामान्यत: आप महसूस करते हैं कि विवाद है । आप अपने नकारात्मक गुणों के बारे में बुरा महसूस करते हैं । नकारात्मकता आपको नीचे की ओर धकेलती है । लेकिन आप अपने सकारात्मक गुणों पर गर्व महसूस करते हैं और अहंकारी बन जाते हैं । आपका सारा जीवन एक बहुत बड़ा बोझ बन जाता है । जब आप ये सारे गुण गुरु को समर्पित कर देते हैं तब आप मुक्त हो जाते हैं । आप एक फूल की तरह बन जाते हैं । आप फिर से मुस्कुराते हैं और प्रत्येक क्षण का आनंद उठाते हैं । आपके भीतर केवल शुद्ध प्रेम ही रहता है ।
धन्यवाद! शुक्रवार को लिखे है मुकेश निहाल जी ने वे आर्ट ऑफ लिविंग में टीचर है।
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