रायपुर,पूनम ऋतु सेन। कोई भी देश कितना ही उन्नतशील क्यों न हो परन्तु उस देश की पहचान उसकी सांस्कृतिक विरासत- पारंपरिक, लोक गीत,लोक नृत्य एवं लोक संगीत से होती है। संस्कृतियों से रचा-बसा छत्तीसगढ अंचल की अस्मिता यहां के लोक गीत, लोक नृत्य एवं लोक संगीत है। छत्तीसगढ एक आदिवासी बहुल राज्य है। इसके सांस्कृतिक विरासत को उन्नत बनाने में यहां के स्थानीय वाद्य यंत्रों की महती भूमिका है।
प्रदेश में खासकर आदिवासी संस्कृति से जुड़े कई वाद्ययंत्र अद्भुत है, जिसमें कई तो ऐसे भी है जिसमें कोयल की कूक, शेर के दहाडऩे की आवाज, कबूतर की आवाज भी निकलती है। इन वाद्ययंत्रों का उपयोग आदिवासी भी घने जंगलों में अपने कंद-मूल तलाशने गए अपने साथियों को वापस बुलाने के लिए करते थे।
आइये आज इस पोस्ट में हम ऐसे ही कुछ अनोखे और पारंपरिक वाद्य यंत्रों के बारे में जानते हैं जो लोक गीत, संगीत और नृत्य को जीवंतता प्रदान करने का कार्य करतें हैं-
माड़िया ढोल –
वाद्यों में माड़िया ढोल मुख्यतः बस्तर क्षेत्र में बस्तर जनजाति द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। यह ढाई फिट लम्बाई का, डेढ फिट गोले का ढोल होता है जिसमें लकड़ी का खोल होता है और दोनों तरफ चमड़े से इनको मड़ा जाता है। इसके एक तरफ को गत कहते है और एक तरफ को तालि। गत की ओर एक साहि लगी होती है जिसके आवाज़ में गमक होती है और ताली में हल्के कर्कश आवाज होती है। इसे गले में लटकाकर हाथ से आघात करके बजाते हैं।
मृदंग –
मृदंग बहुत ही प्राचीन वाद्य है। इनको पहले मिट्टी से ही बनाया जाता था लेकिन आजकल मिट्टी जल्दी फूट जाने और जल्दी खराब होने के कारण लकड़ी का खोल बनाने लग गये है। इनका उपयोग ढोलक ही जैसा होता है। बकरे के खाल से दोनों तरफ छा कर, दोनों तरफ स्याही लगाया जाता है। हाथ से आघात करके इनको भी बजाया जाता है।
नगाड़ा –
नगाड़ा बहुत प्रचलित वाद्य यंत्र है जिसका प्रयोग और भी देशों में होता है लोकिन हमारे छत्तीसगढ़ राज्य में नगाड़ा का उपयोग अलग ही तरीके से किया जाता है। मुख्यतः होली के त्यौहार में बजाया जाने वाला ये नगाड़ा जोड़ो में होता है। डंडे से इसे आघात करके फाग गीत बजाते हैं और इसी गीत में इनका उपयोग करते हैं।
हिरनांग –
इसमें पन्द्रह घण्टी और बड़े बड़े धुधडु से, चमड़े का एक बेल्ट होता है, उसमें पिरोया जाता है। इनको कमड़ में बांधका और कमड़ हिलाकर बजाया जाता है। गौड़ शिकार नृत्य होता है जो बस्तर क्षेत्र में, दन्तेवाड़ा क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। वहाँ इनको दो लोक कलाकार कमर में बांधकर, कमर को हिला कर इनका वादन करते हैं।
तिनकी –
अलग अलग क्षेत्रो में इनका तीन नाम है। बस्तर में इनको तुड़बुड़ी कहते हैं। दुर्ग और राजनानगांव जिले में डमरु कहते हैं और कवर्धा जहाँ बैगा आदिवासी है, वे लोग इनको टिमकी कहते है। अलग-अलग नाम के साथ इनका अलग अलग स्वरुप भी होता है। कहीं छोटा, सकड़ा, मुँह के तरफ सकड़ा, कहीं मुँह के तरफ बड़ा।इसमें मिट्टी का खोल होता है और गाय बैल के चमड़े से इसको मड़ा जाता है और कमर में लटकाकर, दो पतली डंडी से इसको आघात करके बजाते है। दन्तेवाड़ा क्षेत्र में तुड़बुड़ी नृत्य माडिया आदिवासी करते हैं वहीं इस वाद्य यंत्र का उपयोग शादी ब्याह के अवसर पर करतें हैं।
घुंघरु –
छत्तीसगड़ में बिलासपुर जिला है। उस जिले में देवार आदिवासी है। उनका लोकवाद्य है घुंघरु। ये लोग घुमन्तु होते हैं। गांव-गांव में घुम घुमकर गुमटी लगाकर रहते हैं और नाच गान करके जीवन व्यापन करते हैं । उनका ये प्रमुख वाद्य है घुंघुरु। ये लौकी , बांस, और बांस का टुकड़ा और तार से बजाते हैं – चमड़े का तार गाय और बैल के जो नस होते हैं, उनसे रस्सी तैयार किया गया है और उसी को आघात करके इसमें बजाया जाता है। इनके साथ गीत भी गाते हैं। इनका आवाज मधुर होता है ।
चिकारा –
यह बहुत ही प्राचीन वाद्य है जिस समय हमारे छत्तीसगढ़ में हारमोनियम नहीं था, उस ज़माने का यह वाद्य है। उस समय बुजुर्ग लोग दिन भर मेहनत करने के बाद जब शाम को घर आते थे, चौपाल में इसे लेकर बैठ जाया करते थे और भजन कीर्तन करते इन्हें बजाया जाता था। यह लकड़ी का खोल होता है जिसमें दो फीट का चमड़ा मड़ा जाता है। इन तारों को आघात करके इसे बजाया जाता है।
भेर –
छत्तीसगढ़ के सारंगगढ़ तहसील में भेर का उपयोग होता है। ये मांगलिक कार्य में, शादी विवाह में, पूजा-अर्चना में, मेले में, देव पूजा आदि में उस समय उस स्थान को शुद्धिकरण के लिये प्रयोग में लाया जाता हैं। बिगुल जैसे इनका आवाज़ होता है और इनको मुँह से फुककर बजाते हैं। पाँच फिट की लम्बी पाइप जैसे, लोहे की चादर से बनी होती है। सामने के तरफ चोगा के जैसे होता है। इसको मुँह से फुककर बजाया जाता है।
मादर –
मादर को हमारे यहाँ वाद्यों का राजा कहते हैं। इसकी आवाज़ मैं एक ऐसी गमक होती है कि उस पर थाप पड़े तो जो नर्तक है, उसके पैरो में थिड़कन पैदा हो जाती है। ये मिट्टी का एक खोल होता है, तीन फिट लम्बाई का और एक तरफ गद कहते हैं, एक तरफ तालि कहते हैं, एक तरफ दस इंच का रहता है, और एक तरफ से छे इन्च का। इसको चमड़े से दोनों तरफ मड़ा जाता है। और चमड़े के ही रस्सी से इनको खीचा जाता है। इस तरह यह तैयार होता है। लटकाने के लिए एक रस्सी होती है । गले में लटकाकर और दोनों हाथ से आघात करके इसको बजाते हैं। इनकी आवाज़ बहुत ही मीठी और मधुर होती है। इनको लगभग छत्तीसगढ़ के सभी क्षेत्रों में बजाते हैं। करमा नृत्य में इसे मुख्य रुप से उपयोग करते हैं।
अलगोजा-
तीन या चार छिद्रों वाली बांस से बनी बांसुरी को अलगोजा या मुरली कहते हैं, अलगोजा प्रायः दो होते हैं, जिसे साथ मुंह में दबाकर फूंक कर बजाते हैं । दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं । जानवरों को चराते समय या मेलों मड़ाई के अवसर पर इसे बजाते हैं ।
खंजरी या खंझेरी-
डफली के घेरे में तीन या चार जोड़ी झांझ लगे हो तो यह डफली या खंझेरी का रुप ले लेता है, जिसका वादन चांग की तरह हाथ की थाप से किया जाता है ।
ढोलक
यह ढोल की भांति छोटे आकार की होती है । लकड़ी के खोल में दोनो तरफ चमड़ा मढ़ा होता है, एक तरफ पतली आवाज और दूसरे तरफ मोटी आवाज होती है, मोटी आवाज तरफ खखन लगा रहता है, भजन, जसगीत, पंडवानी, भरथरी, फाग आदि में इसका प्रयोग होता है ।
ताशा
मिट्टी की पकी हुई कटोरी (परई) नुमा एक आकार होता है, जिस पर बकरे का चमड़ा मढ़ा होता है, जिसे बांस की पतली डंडी से बजाया जाता है, छत्तीसगढ़ में फाग गीत गाते समय नगाड़े के साथ इसका प्रयोग होता है ।
बांसुरी
यह बहुत ही प्रचलित वाद्य है, यह पोले होते हैं । जिसे छत्तीसगढ़ में राउत जाति के लोग इसका मुख्य रुप से वादन करते हैं। पंडवानी, भरथरी में भी इसका प्रयोग होता है ।
करताल, खड़ताल या कठताल
लकड़ी के बने हुए 11 अंगूल लंबे गोल डंडों को करताल कहते हैं, जिसके दो टुकड़े होते हैं। दोनों टुकड़ो को हाथ में ढीले पकड़कर बजाया जाता है, तमूरा, भजन, पंडवानी गायन में मुख्यतः इसका प्रयोग होता है ।
झांझ –
झांझ प्रायः लोहे का बना होता है, लोहे के दो गोल टुकड़े जिसके मध्य में एक छेद होता है, जिस पर रस्सी या कपड़ा हाथ में पकड़ने के लिए लगाया जाता है । एक-एक टुकड़े को एक-एक हाथ में पकड़कर बजाया जाता है ।
मंजीरा –
झांझ का छोटा स्वरुप मंजीरा कहलाता है । मंजीरा धातु के गोल टुकड़े से बना होता है। भजन गायन, जसगीत, फाग गीत आदि में इसका प्रयोग होता है ।
मोंहरी –
यह बांसुरी के समान बांस के टुकड़ों का बना होता है । इसमें छः छेद होते हैं । इसके अंतिम सीरे में पीतल का कटोरीनुमा आकार का यंत्र लगा होता है एवं इसे ताड़ के पत्ते के सहारे बजाया जाता है । मुख्यतः गंड़वा बाजा के साथ इसका उपयोग होता है ।
दफड़ा –
यह चांग की तरह होता है । लकड़ी के गोलाकार व्यास में चमड़ा मढ़ा जाता है एवं लकड़ी के एक सीरे पर छेद कर दिया जाता है जिस पर रस्सी बांधकर वादक अपने कंधे पर लटकाता है, जिसे बठेना के सहारे बजाया जाता है, इसका एक बठेना पतला तथा दूसरा बठेना मोटा होता है ।
निशान या गुदुंम या सिंग बाजा –
यह गड़वा बाजा साज का प्रमुख वाद्य है । यह लोहे के कढ़ाईनुमा आकार में चमड़ा मढ़ा जाता है । चमड़ा मोटा होता है एवं चमड़े को रस्सी से ही खींचकर कसा जाता है । लोहे के बर्तन में आखरी सिरे पर छेद होता है, जिस पर बीच-बीच में अंडी तेल डाला जाता है एवं छेद को कपड़े से बंद कर दिया जाता है । ऊपर भाग में खखन तथा चीट लगाया जाता है । टायर के टुकड़ों का बठेना बनाया जाता है, जिसे पिट-पिट कर बजाया जाता है इसके बजाने वाले को निशनहा कहते हैं । गुदुम या निशान पर बारह सींगा जानवर का सींग भी लगा दिया जाता है इस प्रकार आदिवासी क्षेत्रों में इसे सिंग बाजा कहते हैं ।