अक्षय तृतीया विशेष: भगवान परशुराम जयंती



मत्स्यः कूर्मों वराहक्ष नारसिंहश्च वामनः ।
रामो रामश्च रामश्च कृष्णः कल्की च ते दश ॥
(पद्मपुराण उत्तरखण्ड २२९ । ४०)

मत्स्य,कूर्म,वराह, नृसिंह,वामन, परशुराम, राम, बलराम, कृष्ण,कल्कि।
परशुराम जी भगवान के ही अवतार है। इनकी गिनती दशावतार में की जाती है।

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।कृपः परशुरामश्चैव सप्तैते चिरंजीविनः॥
सप्तैतान् स्मरेन्नित्यम् मार्कंडेयम् तथाष्टमम्।

सात चिरंजीवी में भी इनको गिना जाता है।

परशुरामजी भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर ‘राम’ कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे ‘परशुराम’ कहलाये।
आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ।
तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया।

परशुराम जी केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा प्रदान करते थे। क्षत्रिय विरोधी होने के उपरांत भगवान परशुराम ने भीष्म को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।उन्होंने भीष्म को शस्त्र कला सिखाई थी।
भगवान परशुराम द्रोणाचार्य और कर्ण के भी गुरु थे।
सूर्य पुत्र कर्ण ने अपने जन्म से संबंधित तथ्यों को छिपाकर परशुराम जी से शिक्षा प्राप्त कर ली थी परिणाम स्वरूप कर्ण श्रापित होना पड़ा।

बाल्यावस्थामें तपके द्वारा विष्णु भगवान्‌की आराधना करनेके लिये अकस्मात् परम पवित्र चक्रतीर्थमें गये और वहाँ प्रतिदिन अनन्यभावसे तपस्या करते हुए परशुराम जी ने परमात्मा नारायण भगवान् विष्णुको प्रसन्न किया ॥उस समय शंख चक्र गदाधारी प्रसन्नवदन देवेश्वर विष्णुने मुझसे प्रसन्न होकर कहा-

उत्तिष्ठ तपसो ब्रह्मन्फलितं ते तपो महत्।
मच्चिदंशेन युक्तस्त्वं जहि हैहयपुङ्गवम् ॥

कार्तवीर्य पितृहणं यदर्थं तपसः भ्रमः ।
ततस्त्रिः सप्तकृत्वस्त्वं हत्वा क्षत्रियमण्डलम्।।
(अध्यात्म रामायण १.७.२४-२५)
श्रीभगवान् बोले – हे ब्रह्मन् ! तपस्या छोड़कर खड़े
हो, तुम्हारा महान् तप सफल हो गया! तुम मेरे चिदंशसे युक्त होकर, जिसके लिये यह तपस्या करनेका कष्ट उठाया है उस पितृघाती हैहय श्रेष्ठ कार्तवीर्यका वध करो और फिर इक्कीस बार समस्त क्षत्रियोंको मारकर सम्पूर्ण पृथिवी कश्यपजीको दे शान्ति लाभ करो।
मैं अविनाशी परमात्मा त्रेतायुगमें दशरथके यहाँ ‘राम’ नामसे जन्म लूँगा। उस समय मेरी परमशक्ति (सीता) के सहित तुम मुझे देखोगे। तब (पहले) इस समय तुम्हें दिया हुआ अपना तेज मैं फिर ग्रहण कर लूँगा।

वीर हैहयाधिपति सहस्रार्जुन ने देखा कि जमदग्नि मुनिका ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। कामधेनुको लेना चाहा ॥। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि कामधेनुको छीन ले चलो। उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़ेके साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनुको बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये।
जब परशुराम जी आश्रम में आए और उन्होंने अपने पिता जमदग्नि से सारा वृत्तांत सुना तो वे तिलमिला उठे महिष्मति पुरी पर आक्रमण कर दिया।

यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो
मनोऽनिलौजाः परचक्रसूदनः
ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरा
निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः
(श्रीमद् भागवत ९.१५ ३१)
भगवान् परशुरामजीकी गति मन और वायुके समान थी। बस, वे शत्रुकी सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसेका प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बड़े-बड़े वीरोंकी बाँहें, जाँघ और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जाते थे।

सीता स्वयंवर के समय शिव धनुष भंग होने के कारण हुई ध्वनि को सुनकर परशुराम जी मिथिला आए
भैया लक्ष्मण एवं राम जी के साथ संवाद के संवाद हुआ।

सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के।
उघरे पटल परसुधर मति के ॥
श्रीरघुनाथजीके कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजीकी बुद्धिके परदे खुल गये ॥

न चेद्यं काकुत्स्थ व्रीडा भवितुमर्हति ।
त्यया त्रैलोक्यनाथेन यदहं विमुखीकृतः ॥ १९ ॥
(वा रा १.७६.१९)
‘ककुत्स्थकुलभूषण ! आपके सामने जो मेरी असमर्थता प्रकट हुई यह मेरे लिये लज्जाजनक नहीं हो सकती। क्योंकि आप त्रिलोकीनाथ श्रीहरिने मुझे पराजित किया है।

राम रमापति कर धनु लेहू।
खैंचहु मिटै मोर संदेहू।।

देत चापु आपुहिं चलि गयऊ।
परसुराम मन बिसमय भयऊ।
(मानस।१।२८४.७-८)
परशुरामजीने कहा- ] हे राम हे लक्ष्मीपति । धनुषको हाथमें [ अथवा लक्ष्मीपति विष्णुका धनुष ] लीजिये और इसे खींचिये, जिससे मेरा सन्देह मिट जाय। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह धनुष आप ही चला गया। तब परशुरामजीके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ।

परशुराम जी प्रार्थना करने लगे

यदि मेऽनुग्रहो राम तवास्ति मधुसूदन ।
त्वद्भक्तसङ्गस्त्वत्पादे दृढा भक्तिः सदास्तु मे ॥
(अ रा १.७.४८)

“हे मधुसूदन राम। यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो । मुझे सदा आपके भक्तोंका संग रहे और आपके चरण कमलोंमें मेरी सुदृढ़ भक्ति हो सर्वदा आपकी भक्ति मिले और ज्ञान प्राप्त हो तथा अन्तमें आपकी स्मृति रहे” ॥
तदनन्तर रघुनाथजीके ‘ऐसा ही हो’ इस प्रकार कहनेपर परशुरामजीने उनकी परिक्रमा कर उन्हें प्रणाम किया और उनसे पूजित हो उनकी आज्ञासे महेन्द्रपर्वतपर चले गये।

काल कराल नृपालन्हके
धनुभंगु सुनै फरसा लिएँ धाए ।
लक्खनु रामु बिलोकि सप्रेम
महारिसतें फिरि आँखि दिखाए।
धीरसिरोमनि बीर बड़े,
बिनयी बिजयी रघुनाथु सुहाए।
लायक हे भृगुनायक से ,
धनु-सायक साँपि सुभायँ सिधाए ।
(कवितावली)
धनुष-भङ्ग सुनकर राजाओंके कराल कालरूप श्रीपरशुरामजी अपना कुठार लेकर दौड़े। मोहिनी मूर्ति श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीको पहले प्रेमपूर्वक देखा, फिर महाक्रोधमें आ आँखें दिखाने लगे। श्रीरामचन्द्रजी स्वभावसे ही धीरशिरोमणि, महावीर, परमविनयी और विजयशील हैं। यद्यपि भृगुनायक परशुरामजी बड़े सुयोग्य वीर थे, तो भी उन्हें अपने धनुष-बाण सौंपकर चले गये ॥

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