रायपुर, पूनम ऋतु सेन। छत्तीसगढ़ एक अनूठा राज्य होने के साथ यहाँ की हैरान करने वाली परंपरायें इसे और विशेष बनाती हैं। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति निरंतर जागृत देवताओं की संस्कृति है। यहां की संस्कृति में आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चार महीनों को चातुर्मास के रूप में मनाये जाने की परंपरा नहीं है। यहां देवउठनी पर्व (कार्तिक शुक्ल एकादशी) के दस दिन पूर्व कार्तिक आमावस्या को जो गौरा-गौरी पूजा का पर्व मनाया जाता है, वह इस बात का अकाट्य प्रमाण है।
आपको बता दें कि दीवाली के अगले दिन गाँव गाँव में गौरा- गौरी का त्यौहार मनाया जाता है, अंचल की इस संस्कृति में भगवान शंकर और माँ पार्वती का प्रतीकात्मक ब्याह रचाया जाता है। जब यहां की संस्कृति के सबसे बड़े देव की शादी देव उठनी के पूर्व हो गई तो फिर चातुर्मास की व्यवस्था यहां पर कैसे लागू हुई? यह सवाल एकदम सटीक दिखाई पड़ता है।
जिस छत्तीसगढ़ में देवउठनी के पूर्व यहां के सबसे बड़े देव (गौरा-ईसरदेव) की शादी का पर्व मनाया जाता है, वह इस बात को कैसे स्वीकार करेगा कि भगवान चार महीनों के लिए सो जाते हैंं, या इन चार महीनों में किसी भी प्रकार का शुभ कार्य नहीं किया जाना चाहिए…? वास्तव में छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में यही चार महीने सबसे शुभ और पवित्र होते हैं, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों (सावन, भादों, कुंवार, कार्तिक) में ही यहां के प्राय: सभी प्रमुख पर्व हरेली से लेकर गौरा-गौरी देव विवाह तक सम्पन्न किये जाते हैं।
यहां के बस्तर क्षेत्र में सावन के महीने म़ें ही भीमादेव की शादी का पर्व मनाया जाता है। इसके अलावा यह भी अंचल की मान्यता है कि जिस वर्ष वर्षा कम होती है, उस वर्ष वर्षा के देवता को प्रसन्न करने के लिए मेढक-मेढकी की शादी करने की लोक परंपरा है।
दूसरी ओर यह बात भी सही है कि जो लोग अन्य प्रदेशों से छत्तीसगढ़ में आये हैं, और अभी तक यहां की मूल संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये हैं, ऐसे लोग जरूर चातुर्मास की परंपरा को मानते हैं, लेकिन यहां का मूल निवासी समाज ऐसी किसी भी व्यवस्था को नहीं मानता, क्यों कि उनके देवता निरंतर जागृत रहते हैं, कभी सोते नहीं।
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