सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिनिधित्व के डेटा के लिए कैडर को इकाई माना
रायपुर। सुप्रीम कोर्ट के शुक्रवार को आए ऐतिहासिक फैसले ने छत्तीसगढ़ में प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान बचाने की सरकारी-गैर सरकारी कोशिशों को बेकार कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय की तीन जजों की बेंच ने स्पष्ट कर दिया कि राज्य सरकार पदोन्नति के लिए प्रतिनिधित्व के मात्रात्मक आंकड़े जुटाने के लिए बाध्य है। यह मात्रात्मक आंकड़ा भी पूरी सेवा के लिए नहीं बल्कि उस पद या कैडर को इकाई मानकर इकट्ठा करना होगा। संविधानिक मामलों के जानकार और पदोन्नति में आरक्षण के मामले को करीब से देख रहे बी.के. मनीष बताते हैं, आज न्यायालय ने जरनैल सिंह मामले में प्रमोशन-रिजर्वेशन में रोस्टर को खत्म कर दिया। इसमें साफ किया गया है कि राज्य अथवा नियोक्ता को प्रतिनिधित्व के आंकड़े सेवा-विभाग स्तर पर नहीं बल्कि कॉडर स्तर पर यानी जिस पद पर पदोन्नति होनी है उस पर जमा करने होंगे। रेखांकित किए गए कॉडर का आंकड़ा सेवानिवृत्ति, बर्खास्तगी की वजह से हमेशा बदलता रहता है। किसी कॉडर पर प्रमोशन पर विचार करने के लिए ठीक ऊपर के पद की प्रमोशन से खाली हुई वेकेंसी पहले से मालूम नहीं होती। बी.के. मनीष ने कहा, राज्य को यह देखना होता है कि बिना आरक्षण के पदोन्नति करने पर उस स्तर पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या होगी। अगर राज्य सरकार को यह अपर्याप्त लगता है तो सुधार के लिए कितना आरक्षण देना चाहिए यह भी तय करना होता है। छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रमुख सचिव मनोज कुमार पिंगुआ कमेटी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों का आंकड़ा जुटाया है। बताया जा रहा है कि कमेटी की रिपोर्ट उच्च न्यायालय को दी गई है। अब सर्वोच्च न्यायालय का आदेश इसको भी प्रभावित करेगा।
जनसंख्या के आधार पर आरक्षण देने का प्रस्ताव खारिज
बीके मनीष ने बताया, जनसंख्या प्रतिशत को प्रतिनिधित्व का आधार बनाने के अटॉर्नी जनरल के आग्रह को जरनैल सिंह मामले में संविधान पीठ पहले ही ठुकरा चुकी है। अक्टूबर 2021 की सुनवाई में भी अटॉर्नी जनरल, वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह सहित कई लोगों ने जनसंख्या प्रतिशत आधारित रोस्टर को प्रतिनिधित्व का आधार बनाने की पुरजोर दलील दी थी जो बेअसर हुई। अब कॉडर स्तर पर आंकड़े जमा करने की शर्त दुहरा कर सुप्रीम कोर्ट ने अप्रत्यक्ष रूप से यह तय कर दिया है कि प्रतिनिधित्व के आंकड़े पदोन्नति के हर अवसर पर जमा करने होंगे। ऐसे में आरक्षण का कोई पूर्व निश्चित रोस्टर अब वैध नहीं होगा।
छत्तीसगढ़ के कर्मचारियों पर भी पड़ेगा असर
संविधान विशेषज्ञ बीके मनीष कहते हैं कि इस फैसले ने अक्टूबर 2019 में अधिसूचित नए पदोन्नति नियम की कंडिका-5 पर जो प्रकरण छत्तीसगढ उच्च न्यायालय में लंबित है उसके भी खात्मे का रास्ता साफ कर दिया है। पिछले नियम की कंडिका-5 को निरस्त करने वाले उच्च न्यायालय के जिस फैसले को विजय कोराम और निरंजन कुमार ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे रखी है, वह भी समाप्त हो जाती है। इसका कारण यह है कि दोनों नियमों में रोस्टर मौजूद है। छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से बनाई गई पिंगुआ कमेटी की रिपोर्ट भी अब बेमानी हो गई है क्योंकि जिस रत्नप्रभा कमेटी की तर्ज पर इसने काम किया है उसे भी आज सुप्रीम कोर्ट ने अवैध ठहरा दिया है।
ऐसी है सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की पृष्ठभूमि
2006 में एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने वाले 85वें संविधान संशोधन की वैधता को बरकरार रखा था। न्यायालय ने तब प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता पर डेटा का संग्रह, प्रशासन की दक्षता पर समग्र प्रभाव और क्रीमीलेयर को हटाने जैसी शर्तें रखी थीं। पदोन्नति में आरक्षण पर विचार करते समय 2018 में जरनैल सिंह मामले में भी पांच न्यायाधीशों की बेंच ने एम. नागराज फैसले को उस हद तक गलत मानते हुए संदर्भ का जवाब दिया, जिसमें कहा गया था कि पदोन्नति में आरक्षण देते समय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन को दशार्ने वाला मात्रात्मक डेटा आवश्यक है। इस स्पष्टीकरण के साथ पांच न्यायाधीशों वाली बेंच ने नागराज फैसले को सात न्यायाधीशों की बेंच को सौंपने का आग्रह ठुकरा दिया था। इसकी वजह से सरकारों के सामने स्थिति अस्पष्ट हो गई थी। अब केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने अलग-अलग 144 याचिकाएं दायर कर सर्वोच्च न्यायालय से पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित मुद्दों पर तत्काल सुनवाई करने का आग्रह किया था। तर्क यह था कि मानदंडों में अस्पष्टता की वजह से कई राज्यों में पदोन्नतियां रोक दी गई हैं।