वाराणसी के मंदिरों पर आक्रांताओं की कुदृष्टि सदा ही रही। इसके प्रमाण इतिहास के पन्नों में मिलते हैं। गुरुग्राम के सेक्टर-32 स्थित अमेरिकन इंस्टीटट आफ इंडियन स्टडीज के कला एवं पुरातत्व विभाग के संग्रहालय और पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकों और अभिलेखों में ऐसे कई साक्ष्य हैं।
‘काशी का इतिहास” पुस्तक में डा. मोतीचंद्र ने जजिया के संबंध में लिखा है कि जब वाराणसी यात्रा के लिए जजिया लगाया गया तो कर्नाटक के होयसला साम्राज्य के राजा नरसिहा (तृतीय) ने 1279 ईस्वी में 645 निष्क (सोने की मोहर) का राजस्व देने वाला एक गांव दान दे दिया था। उसके एवज में कर्नाटक और तेलंगाना सहित अन्य कई प्रदेशों के श्रद्धालुओं को विश्वेश्वर मंदिर जाने की आज्ञा मिली थी। इसका प्रमाण ताम्रपत्र ग्रांट नंबर 298 के रूप में एपीग्राफिया कर्नाटका के 15वें संस्करण के पृष्ठ संख्या 71 से 73 में मिलता है।
एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल के जर्नल के 31वें संस्करण के पृष्ठ संख्या 123 पर लिखा है, इस बात के प्रमाण हैं कि गहड़वाली वंश के राजा गोविद चंद्र (शासनकाल 1114 से 1154) यहां पूजा किया करते थे और उसका उल्लेख करता हुआ ताम्रपत्र आज भी विद्यमान है। मुगलों ने जजिया यानी तीर्थस्थलों की यात्रा और पूजा-अर्चना पर लगने वाला कर लगाया था। उसके उल्लेख से इतिहास भरा हुआ है। ज्ञानवापी मंदिर नहीं था तो यहां की यात्रा और दर्शनों पर जजिया क्यों लगाया जाता?
इसी समय का एक और साक्ष्य गुजरात से वाराणसी की यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं को लेकर मिलता है। 13वीं शताब्दी में वहां से भी कर दिया जाता था और वहां से लोग विश्वेश्वर मंदिर में दर्शन करने आते थे। डा. मोती चंद्रा की पुस्तक ‘काशी का इतिहास” में एक उदाहरण मिलता है, जो लगभग इसी काल का है। डा. मोती चंद्रा ने लिखा है कि उस समय गुजरात के एक जैन सेठ वास्तुपाल ने विश्वेश्वर मंदिर में पूजा करने की अनुमति प्राप्त करने के लिए एक लाख रुपये दिए थे। इससे स्पष्ट है कि वाराणसी ही नहीं, पूरे देश के लिए यह मंदिर श्रद्धा का केंद्र था। लोग देश भर से यहां आते थे और उसके लिए बाकायदा लगाया गया कर चुकाने के भी प्रमाण हैं।