राजा द्रुपद ने पुत्र प्राप्ति के लिए हवन कराया। देवों ने खुश हो कर पुत्र के साथ उन्होंने बेटी भी देदी जिसे दुनिया द्रौपदी के नाम से जानी। हवन कुंड से निकलने के पहले ऋषियों ने राजा से बेटी के लिए देवों से वरदान मानने को कहा।
बेटी होने से नाखुश राजा ने ऐसी कन्या मांगी जो अग्नि की तरह पवित्र हो लेकिन हर कदम पर उसको अपमान और अपवित्र होने की आलोचना झेलनी पड़े। कन्या को बड़ी परीक्षाओं के बाद पिता ने अनयाय। द्रौपदी का स्वयंबर हुआ जिसमें अनेक उतार चढ़ाव के बाद आखिर अर्जुन ने जीत हासिल कर ली। द्रौपदी को जहाँ एक ओर इच्छित वर मिला वहीं पांचों पांडवों में बांटने की सजा भी मिली। बेटी की ऐसी हालत देख राजा द्रुपद ने श्री कृष्ण से उसकी दुर्दशा का कारण पूछा, जिसके उत्तर में वासुदेव ने राजा को वो सभी वरदान और श्राप याद कराए जिसे उन्होंने देवों से मांगा था। यही कारण है कि अग्नि की तरह पवित्र द्रौपदी को जीवन भर परीक्षाएं और अपमान का सामना करना पड़ा।
कहानी का ये सार है, कभी भी क्रोध में आ कर भी ऐसी बात मन में भी न लाओ जो आगे चल कर कष्टदायक साबित हो। हमें हर बात के पीछे उसका परिणाम पहले सोचना चाहिए और अपनी सोच को हमेशा अच्छा और सकारात्मक रखना चाहिए।