रायपुर। गरियाबंद जिले के सुपेबेड़ा में किडनी की बीमारी से जूझ रहे मरीजों के लिए पेरिटोनियल डायलिसिस वरदान साबित हो रहा है। यहां अब मरीज घर पर ही पेरिटोनियल डायलिसिस करवा रहे हैं। जिससे उनकी सेहत मे ंभी सुधार हो रहा है। पहले डायलिसिस कराने के लिए मरीजों को 250 किलोमीटर की दूरी तय कर राजधानी रायपुर जाना पड़ता था। सुपेबेड़ा में किडनी की बीमारी के चलते 2009 से लेकर अब तक 72 लोगों की जान जा चुकी है। यहां अब भी इस बीमारी से 15 लोग पीड़ित हैं। सुपेबेड़ा में डॉक्टरों से लेकर प्रशासन की टीम कई बार दौरा कर चुकी है। यहां कई बार हेल्थ कैंप लगाए जा चुके हैं। मगर किडनी की बीमारी के चलते यहां लगातार मौतें हो रही हैं। बताया जाता है कि सुपेबेड़ा के पानी में घातक मेटल है। जिसकी वजह से लोग किडनी की बीमारी की चपेट में आते हैं। ऐसे में कुछ मरीजों का क्रिएटिन और यूरिया लेबल बढ़ने लगा। डायलिसिस ही एक मात्रा विकल्प है। पहले मरीज हिमो डायलिसिस कराने रायपुर जाते थे। इस डायलिसिस की जरूरत मरीजों को सप्ताह में एक बार पड़ती थी। कुछ मरीजों की स्थिति के अनुसार डायलिसिस कराना पड़ता था। मगर आने जाने में समय लगने और पैसे के अभाव के कारण कई लोग रायपुर नहीं पहुंच पाते थे। जिसकी वजह से कई लोगों की जान चली गई। इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्रशासन ने पेरिटोनियल डायलिसिस की व्यवस्था 20 महीने पहले की है। पेरिटोनियल डायलिसिस, हिमो डायलिसिस के बाद दूसरा प्रकार है।
काफी आसान प्रक्रिया है
कलेक्टर नीलेश क्षीरसागर ने बताया कि पेरिटोनियल डायलिसिस की सुविधा रायपुर एम्स में है, लेकिन इसे एम्स की निगरानी में सुपेबेड़ा के लोगों के लिए भी यह व्यवस्था शुरू की गई है। इससे मरीज के साथ वाला शख्स ट्रेनिंग लेकर मरीज का घर पर ही डायलिसिस कर सकता है और यह काफी आसान भी है। उन्होंने बताया कि इसके लिए सरकार ने 2 करोड़ 19 लाख का प्रावधान किया है। कलेक्टर ने बताया कि सुपेबेड़ा में शिक्षक तुकाराम क्षेत्रपाल (52 वर्ष) पिछले 20 महीने से एवं ललिता सोनवानी (60 वर्ष) पिछले 4 महीने से पेरोटेनियल डायलिसिस करवा रहे हैं। 47 वर्षीय बसंती पुरैना को भी एम्स में इलाज के बाद पेरोटेनियल डायलिसिस की सलाह दी गई है। उन्होंने बताया है कि अभी जिन लोगों को इसकी आवश्यकता है, हम उन तक यह सुविधा पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। उम्मीद है, इससे और बेहतर परिणम मिलेंगे।
अब ठीक से चल पाते हैं तुकाराम
पेशे से शिक्षक तुकाराम किडनी की बीमारी से पीड़ित हैं। शुरूआत में उन्हें डायलिसिस के लिए रायपुर एम्स जाना पड़ता था। इससे उन्हें काफी परेशानी भी होती थी। मगर एम्स प्रबंधन ने ही उन्हें बताया कि आपके यहां अब पेरोटेनियल डायलिसिस की सुविधा शुरू कर दी गई है। इसके बाद वह पिछले 20 महीने से घर पर ही डायलिसिस करा रहे हैं। उनका डायलिसिस उन्हीं का बेटा राहुल करता है। राहुल को इसकी ट्रेनिंग एम्स ने ही दी है। घर पर इस सुविधा मिलने के बाद तुकाराम को राहत भी मिली है। उनके बेटे राहुल ने बताया कि अब पिता घूमने फिरने के अलावा ठीक से भोजन भी कर ले रहे हैं। पहले चलने फिरने में भी दिक्कत होती थी। घर पर ही डायलिसिस कराने से काफी आराम है। वहीं तुकाराम को देखकर 2017 से किडनी की बीमारी से जूझ रही 60 वर्षीय ललिता सोनवानी ने भी पेरिटोनियल की राह पकड़ ली है। ललिता के दो जवान बेटे बाहर मजदूरी करते हैं। 24 वर्षीय बेटी पुष्पा घर पर मां के साथ रहती है। मजदूरी कर गुजारा करने वाले इस परिवार के लिए पेरिटोनियल वरदान साबित हुआ। 5वीं तक पढ़ी पुष्पा ही घर पर अपनी मां का डायलिसिस करती है। पुष्पा ने बताया कि उन्होंने 15 दिन के अंदर इस प्रक्रिया को सीखा था। आज आसानी से वह मां का डायलिसिस कर लेती हैं। ललिता की हालत में भी सुधार है। ललिता पिछले 4 महीने से पेरिटोनियल डायलिसिस करवा रही हैं।
पेरिटोनियल डायलिसिस क्या है
पेरिटोनियल डायलिसिस की वह प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से पेट के निचले हिस्से में सर्जरी कर के एक नली डालकर बेकार पदार्थों को बाहर निकाला जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान, एक तरह का खास तरल पदार्थ जिसे डायलिसेट कहते हैं उसे कैथेटर के जरिए पेट में डालकर कुछ घंटों तक पेट में ही रखा जाता है। इस समय में डायलिसेट बेकार पदार्थों को पेट से सोख लेता है और उसके बाद डायलिसेट को पेट से बाहर निकाल लिया जाता है। इस प्रक्रिया में प्रतिदिन तीन से चार बार दोहराया जाता है। इस विधि के लिए मशीन की जरूरत नहीं होती है। यह सरल प्रक्रिया है इसे घर, दफ्तर तथा स्कूल जैसी जगह पर भी पूरा किया जा सकता है। इसके अलावा इसे ऐसे मरीजों के लिए अपनाया जाता है जो बाहर आ-जा नहीं सकते।
पानी में है खतरनाक धातु
दरअसल, यहां किडनी की बीमारी फैलने का सबसे कारण है यहां का पानी। कुछ साल पहले यहां के पानी का सैंपल लिया गया था। जिसमें पता चला कि किडनी के लिए घातक कैडमियम और क्रोमियम जैसी धातु पानी में मौजूद हैं। मगर 2017 में आई इस रिपोर्ट को सार्वजनिक ही नहीं किया गया। बल्कि शासन ने करोड़ों रुपए खर्च कर आर्सेनिक और फ्लोराइड रिमूवल प्लांट लगा दिया। यहां के लोगों में इस बीमारी का इतना खौफ है कि लोग यहां के लड़कों के साथ अपनी बेटी की शादी नहीं करना चाहते हैं।