पेड़ की जड़ में करुणा होती है और लताओं में प्रण, प्रतिज्ञा और वचन।
कभी-कभी जड़ को बचाने पेड़ की लताओं को काटना पड़ता है। उसी प्रकार किसी को न्याय दिलाने के लिए प्रतिज्ञा तोड़न सही साबित होता है।
लेकिन धर्म के मार्ग को चुनने वाले लोग यह नहीं कर पाते। वह धर्म को बचाने के लिए कभी-कभी मौन हो कर अधर्म के साक्षी बन जाते हैं, जैसे कि पीतामाह भीष्म ने किया। धृतराष्ट्र को वचन देकर वो बंध गए थे। युधिष्टिर ने भी अपना धर्म निभाने के लिए झूट नही बोला और प्रण को निभाने के लिए द्यूत (चौसर) के खेल को बीच में नही छोड़ा।
काश वह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देते तो भरी सभा में द्रोपदी को लज्जित नहीं होना पड़ता। महाभारत की शुरुआत नही होती।
आशय यह है कि अधर्म को रोकने के लिए अगर प्रतिज्ञा, प्रण तोड़ना पड़े तो वह भी धर्म ही है।