ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक का पसंदीदा और उनके द्वारा कई साहसिक अभियानों में इस्तेमाल किया गया ऐतिहासिक डकोटा विमान एक दिन पहले कोलकाता से चलने के बाद बुधवार को ओडिशा पहुंच गया है। गौरवपूर्व स्मृतियों को समेटे डकोटा विमान को बंगाल से ओडिशा वापस लाने के लिए कई वर्षों से प्रयास चल रहे थे।
बुधवार को ओडिशा पहुंचने के बाद ऐतिहासिक विमान को भुवनेश्वर एयरपोर्ट पर रखा गया है। शीघ्र ही इसके अलग-अलग कल-पुर्जों को जोड़कर इसे पूर्ण आकार में प्रदर्शित किया जाएगा। देश की आजादी और विभाजन के समय 1947 में श्रीनगर से भारतीय सैनिकों को एयरलिफ्ट करने से लेकर सैनिकों तक दवा व अन्य जरूरी सामान पहुंचाने तथा इंडोनेशियाई प्रधानमंत्री को डचों के चंगुल से बचाने तक के अभियान में डकोटा साहसी पायलट बीजू पटनायक का साथी था। इस डकोटा विमान का संचालन बीजू पटनायक की कंपनी कलिंगा एयरलाइंस करती थी। बीजू पटनायक के बेटे और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने डकोटा के राज्य में लौटने पर खुशी जाहिर की है।
नेहरू का फोन आया तो पत्नी के साथ मिशन पर निकल पड़े बीजू
देश के आजाद होने के एक महीने पहले जुलाई 1947 में कांग्रेस के विधायक और रायल इंडियन एयरफोर्स के पायलट रहे 32 वर्षीय बीजू पटनायक के पास एक फोन आया। फोन के दूसरी ओर पंडित जवाहर लाल नेहरू थे, लेकिन तब वह प्रधानमंत्री नहीं बने थे। उस वक्त भारत को ब्रिटिश राज से मुक्त करने और सत्ता हस्तांतरित करने की तैयारियां चल रही थीं। नेहरू ने पटनायक से एक असाधारण आग्रह करते हुए इंडोनेशिया को डचों से मुक्त कराने की लड़ाई में मदद पहुंचाने तथा वहां के संवतंत्रता संग्राम में मदद पहुंचाने तथा प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सुकर्णो आजाद और सुतन सजहरिर को छुड़ाकर भारत लाने की जिम्मेदारी सौंपी, जिन्हें डच और ब्रिटिश सेना ने वहां नजरबंद कर रखा था।
बीजू पटनायक ने नेहरू को यह साहसिक अभियान पूरा करने का भरोसा दिलाया और मिशन पर अपनी पत्नी व सह पायलट ज्ञानवती पटनायक के साथ मिशन पर निकल पड़े। 21 जुलाई 1947 को पटनायक ने को-पायलट ज्ञानवती के साथ अपने डकोटा विमान (डीसी-3 वीटी- एयूआइ) से उड़ान भरी और सिगापुर होते हुए 22 जुलाई को जकार्ता पहुंचे। इस दौरान डच सेना ने पटनायक के विमान को उड़ाने की भी कोशिश की। तमाम हमलों से बचते हुए कठिन चुनौतियों के बीच पटनायक सुकर्णो और सजहरिर को वहां से नई दिल्ली ले आए थे। इंडोनेशिया की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस मिशन ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था। बाद में सुकर्णों इंडोनेशिया के राष्ट्रपति बने और सजहरिर वहां के प्रधानमंत्री। इस बहादुरी के लिए पटनायक को मानद रूप में इंडोनेशिया की नागरिकता दी गई थी। साथ ही दो बार वहां के सर्वोच्च भूमिपुत्र सम्मान से सम्मानित किया गया।
जब कमजोर पड़ गई थी महाराजा हरि सिह की सेना : 27 अक्टूबर, 1947 में जम्मू-कश्मीर प्रांत में अशांति थी। महाराजा हरि सिह के शासनकाल को चुनौती देने के लिए दो महीने पहले बना पाकिस्तान राज्य को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास कर रहा था। पाकिस्तानी सेना की मदद के कारण पख्तून कबायली आतंकियों के सामने महाराजा हरि सिंह की सेना कमजोर पड़ रही थी। धीरे-धीरे हालात इतने तनावपूर्ण हो गए कि पाकिस्तानी सेना के पास श्रीनगर पर कब्जा करने के लिए महज 30 किलोमीटर का रास्ता बचा था। अंत में हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद मांगी। हरि सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से अनुरोध किया। उन्होंने सेना भेजी और श्रीनगर की रक्षा करने का अनुरोध किया। ऐसी कठिन परिस्थिति में बीजू पटनायक और डकोटा ने अद्वितीय भूमिका निभाई।